ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
सा॒क॒मुक्षो॑ मर्जयन्त॒ स्वसा॑रो॒ दश॒ धीर॑स्य धी॒तयो॒ धनु॑त्रीः । हरि॒: पर्य॑द्रव॒ज्जाः सूर्य॑स्य॒ द्रोणं॑ ननक्षे॒ अत्यो॒ न वा॒जी ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒क॒म्ऽउक्षः॑ । म॒र्ज॒य॒न्त॒ । स्वसा॑रः । दश॑ । धीर॑स्य । धी॒तयः॑ । धनु॑त्रीः । हरिः॑ । परि॑ । अ॒द्र॒व॒त् । जाः । सूर्य॑स्य । द्रोण॑म् । न॒न॒क्षे॒ । अत्यः॑ । न । वा॒जी ॥
स्वर रहित मन्त्र
साकमुक्षो मर्जयन्त स्वसारो दश धीरस्य धीतयो धनुत्रीः । हरि: पर्यद्रवज्जाः सूर्यस्य द्रोणं ननक्षे अत्यो न वाजी ॥
स्वर रहित पद पाठसाकम्ऽउक्षः । मर्जयन्त । स्वसारः । दश । धीरस्य । धीतयः । धनुत्रीः । हरिः । परि । अद्रवत् । जाः । सूर्यस्य । द्रोणम् । ननक्षे । अत्यः । न । वाजी ॥ ९.९३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 93; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - पवमान सोम। अभिषेक-प्राप्त राजा के तुल्य देह में आत्मा की स्थिति।
भावार्थ -
(साकम्-उक्षः) एक साथ अभिषेक करनेवाली (स्व-सारः) भगनियों के समान परस्पर स्नेही और (सु-असारः) सुखप्रद वा सुख से विपक्ष को उखाड़ फेंकनेवाली सेनाएं वा प्रजाएं (धीतयः) उसको धारण करने वाली (धनुत्रीः) उसको सन्मार्ग में प्रेरण करनेवाली, (दश) संख्या में दश व्यक्तियें (धीरस्य) बुद्धिमान्, सबों से धारण योग्य एवं ध्यातव्य को (मर्जयन्ति) राजावत् अभिषिक्त करती, उसको निरन्तर शुद्ध करती हैं। वह (हरिः) वेग से जानेवाला सोम, आत्मा (सूर्यस्य जाः इव) सूर्य से उत्पन्न किरणों के तुल्य, प्रजा प्रजाओं को राजा के तुल्य, देशों, प्राण-शक्तियों के प्रति (परि अद्रवत्) प्रवाहित होता है, (अत्यः वाजी न) बलवान् अश्व के तुल्य वह (द्रोणम् ननक्षे) इस देह में, राष्ट्र में राजा के तुल्य प्राप्त होता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नोधा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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