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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 64
ऋषिः - उपस्तुतो वार्हिष्टव्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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चि꣣त्र꣢꣫ इच्छिशो꣣स्त꣡रु꣢णस्य व꣣क्ष꣢थो꣣ न꣢꣫ यो मा꣣त꣡रा꣢व꣣न्वे꣢ति꣣ धा꣡त꣢वे । अ꣣नूधा꣡ यदजी꣢꣯जन꣣द꣡धा꣢ चि꣣दा꣢ व꣣व꣡क्ष꣢त्स꣣द्यो꣡ महि꣢꣯ दू꣣त्यां꣢३꣱च꣡र꣢न् ॥६४॥

स्वर सहित पद पाठ

चि꣣त्रः꣢ । इत् । शि꣡शोः꣢꣯ । त꣡रु꣢꣯णस्य । व꣣क्षथः꣢ । न । यः । मा꣣त꣡रौ꣢ । अ꣣न्वे꣡ति꣣ । अ꣣नु । ए꣡ति꣢꣯ । धा꣣त꣢꣯वे । अ꣣नूधाः꣢ । अ꣣न् । ऊधाः꣢ । यत् । अ꣡जी꣢꣯जनत् । अ꣡ध꣢꣯ । चि꣣त् । आ꣢ । व꣣व꣡क्ष꣢त् । स꣣द्यः꣢ । स꣣ । द्यः꣢ । म꣡हि꣢꣯ । दू꣣त्य꣢꣯म् । च꣡र꣢꣯न् ॥६४॥


स्वर रहित मन्त्र

चित्र इच्छिशोस्तरुणस्य वक्षथो न यो मातरावन्वेति धातवे । अनूधा यदजीजनदधा चिदा ववक्षत्सद्यो महि दूत्यां३चरन् ॥६४॥


स्वर रहित पद पाठ

चित्रः । इत् । शिशोः । तरुणस्य । वक्षथः । न । यः । मातरौ । अन्वेति । अनु । एति । धातवे । अनूधाः । अन् । ऊधाः । यत् । अजीजनत् । अध । चित् । आ । ववक्षत् । सद्यः । स । द्यः । महि । दूत्यम् । चरन् ॥६४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 64
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 7;
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भावार्थ -

भा० = परमात्मा अग्नि  का श्लेषपूर्वक शिशु रूप से वर्णन ।  प्रथम शिशु के पक्ष में – ( शिशो:१  ) = उस शिशु रूप ( तरुणस्य ) = तरुण अग्नि  आत्मा का ( इत्  वक्षथः२  ) = भी यह वहन करने का कार्य ( चित्रः इत् ) = आश्चर्यजनक है ( यः ) = जो ( धातवे ) = रस पान के लिये भी ( मातरौ ) = माता पिता किसी के पास भी ( न अन्वेति ) = नहीं जाता है। और आश्चर्य यह है कि ( अनूधा: ) = बिना दूध के ही अब वह उत्पन्न हुआ ( अधा  चित् ) = तब ही ( सद्यः ) = तुरन्त ( महि ) = बड़े भारी ( दूत्यं चरन् ) = दूत  के कार्य के समान गमनागमन करता हुआ ( आववक्षत् ) = कार्य-भार को उठा लेता है ।

ईश्वर परमात्मा व्यापक, सर्वत्र सुप्त के समान व्यापक होने से यास्तुत्य होने से शिशु है, वह नित्य सामर्थ्यवान् होने से 'तरुण' है । उसका विश्व को वहन करने या धारण करने का कार्य अद्भुत है । वह अपने बल प्राप्त करने के लिये ( मातरौ ) = मातृभूत द्यौ और पृथिवी दोनों के अधीन नहीं रहता । वह संसार को स्वयं उत्पन्न कर चुकने पर भी 'अनुधा:' अर्थात् स्वयं उसको धारण करता है। अतएव वह ( सद्यः ) = निरन्तर ( महि ) = वड़ा भारी ( दृत्यं चरन् ) = विश्व को उपतापन या तप का कार्य करता हुआ इस संसार को ( अववक्षत् ) उठा रहा है ।
 

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

 

ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः । 

छन्दः - जगत्यौ । 

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