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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अभय सूक्त

    इ॒दमु॒च्छ्रेयो॑ऽव॒सान॒मागां॑ शि॒वे मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॑भूताम्। अ॑सप॒त्नाः प्र॒दिशो॑ मे भवन्तु॒ न वै त्वा॑ द्विष्मो॒ अभ॑यं नो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्। उ॒त्ऽश्रेयः॑। अ॒व॒ऽसान॑म्। आ। अ॒गा॒म्। शि॒वे इति॑। मे॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒भू॒ता॒म्। अ॒स॒प॒त्नाः। प्र॒ऽदिशः॑। मे॒। भ॒व॒न्तु॒। न। वै। त्वा॒। द्वि॒ष्मः॒। अभ॑यम्। नः॒। अ॒स्तु॒ ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमुच्छ्रेयोऽवसानमागां शिवे मे द्यावापृथिवी अभूताम्। असपत्नाः प्रदिशो मे भवन्तु न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। उत्ऽश्रेयः। अवऽसानम्। आ। अगाम्। शिवे इति। मे। द्यावापृथिवी इति। अभूताम्। असपत्नाः। प्रऽदिशः। मे। भवन्तु। न। वै। त्वा। द्विष्मः। अभयम्। नः। अस्तु ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 14; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    मैं (इदम्) यह इस प्रकार (उत् श्रेयः अवसानम्) सर्वोतम, परम कल्याणमय कार्य या मार्ग की समाप्ति तक या लक्ष्य तक या मोक्ष तक (आ अगाम्) पहुंचूं। (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, आकाश और जमीन (मे) मेरे लिये (शिव) अति कल्याणकर, सुखकारी (अभूताम्) हों। (प्रदिशः) मुख्य दिशाएं (मे) मेरे लिये (असपत्नाः) शत्रुरहित (भवन्तु) हों। हे शत्रो ! या हे पुरुष ! (त्वा) तुझसे हम (न वै द्विष्मः) द्वेष नहीं करते, इसलिये तेरे से (नः अभयं अस्तु) हमें सदा अभय रहे। जिसके साथ संधि करनी हो उससे भी विजय कार्य के अवसान पर द्वेष न करने का वचन देकर उससे निर्भय होना उचित है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। द्यावापृथिव्यौ देवते। त्रिष्टुप । एकर्चं सूक्तम्॥

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