अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
अ॑न॒भ्रयः॒ खन॑माना॒ विप्रा॑ गम्भी॒रे अ॒पसः॑। भि॒षग्भ्यो॑ भि॒षक्त॑रा॒ आपो॒ अच्छा॑ वदामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒भ्रयः॑। खन॑मानाः। विप्राः॑। ग॒म्भी॒रे। अ॒पसः॑। भि॒षक्ऽभ्यः॑। भि॒षक्ऽत॑राः। आपः॑। अच्छ॑। व॒दा॒म॒सि॒ ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अनभ्रयः खनमाना विप्रा गम्भीरे अपसः। भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपो अच्छा वदामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअनभ्रयः। खनमानाः। विप्राः। गम्भीरे। अपसः। भिषक्ऽभ्यः। भिषक्ऽतराः। आपः। अच्छ। वदामसि ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - शान्तिदायक जलों का वर्णन।
भावार्थ -
(अनभ्रयः) खोदने के औज़ार, कुदाल आदि से रहित होकर (खनमानाः) तले की खोदते हुए (गम्मीरे) गंभीर, गहरे स्थान में (अपसः) व्याप्त वहन वाले (विप्राः) गम्भीर ब्रह्मविषय में विचरण करनेवाले ज्ञानी जो बिना कुदाली के ओषधियों को केवल हाथों से खोदते हैं उन मेधावी पुरुषों के समान ही (आपः) वे जल भी (मिषग्भ्यः) सब रोग दूर करने हारी ओषधियों से भी अधिक (भिषक्तराः) प्रबल रोगविनाशक है जिनके विषय में हम (अच्छा वदामसि) उत्तम रूप से उपदेश करें।
टिप्पणी -
‘गम्मीरे अपसः’ इत्येकेपदै इति सायणः। (द्वि०) ‘गम्भीरेऽपसा’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सिन्धुद्वीप ऋषिः। आपो देवता अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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