अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
अ॒पामह॑ दि॒व्याना॑म॒पां स्रो॑त॒स्यानाम्। अ॒पामह॑ प्र॒णेज॒नेऽश्वा॑ भवथ वा॒जिनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम्। अह॑। दि॒व्या᳡नाम्।अ॒पाम्। स्रो॒त॒स्या᳡नाम्। अ॒पाम्। अह॑। प्र॒ऽनेज॑ने। अश्वाः॑। भ॒व॒थ॒। वा॒जिनः॑ ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामह दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम्। अपामह प्रणेजनेऽश्वा भवथ वाजिनः ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम्। अह। दिव्यानाम्।अपाम्। स्रोतस्यानाम्। अपाम्। अह। प्रऽनेजने। अश्वाः। भवथ। वाजिनः ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
विषय - शान्तिदायक जलों का वर्णन।
भावार्थ -
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (दिव्यानाम् अपाम्) दिव्य, आकाश से बरसने वाले और (स्रोतस्यानाम् अपाम्) स्रोत, या स्रोतों से उत्पन्न होने वाले तथा अन्यान्य (अपाम्) जलों के भी (प्रणेजने) शुद्ध करने में हे (अश्वाः) अश्वों के समान शीघ्रकारी और जलके भोजन करने हारे पुरुषो ! तुम लोग सदा (वाजिनः) वाज, ज्ञान, और, अन्न और बल से युक्त, सदा उद्योगी (भवथ) बने रहो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सिन्धुद्वीप ऋषिः। आपो देवता अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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