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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपम् देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपः सूक्त
    35

    अ॒पामह॑ दि॒व्याना॑म॒पां स्रो॑त॒स्यानाम्। अ॒पामह॑ प्र॒णेज॒नेऽश्वा॑ भवथ वा॒जिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। अह॑। दि॒व्या᳡नाम्।अ॒पाम्। स्रो॒त॒स्या᳡नाम्। अ॒पाम्। अह॑। प्र॒ऽनेज॑ने। अश्वाः॑। भ॒व॒थ॒। वा॒जिनः॑ ॥२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपामह दिव्यानामपां स्रोतस्यानाम्। अपामह प्रणेजनेऽश्वा भवथ वाजिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। अह। दिव्यानाम्।अपाम्। स्रोतस्यानाम्। अपाम्। अह। प्रऽनेजने। अश्वाः। भवथ। वाजिनः ॥२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    जल के उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (अह) निश्चय करके (दिव्यानाम्) आकाश से बरसनेवाले (अपाम्) जलों के और (स्रोतस्यानाम्) स्रोतों से निकलनेवाले (अपाम्) फैलते हुए (अपाम्) जलों के (प्रणेजने) पोषण सामर्थ्य में, (अह) निश्चय करके तुम (वाजिनः) वेगवाले (अश्वाः) बलवान् पुरुष [वा घोड़ों के समान] (भवथ) हो जाओ ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य वृष्टि के और नदी कूप आदि के जल की यथावत् चिकित्सा से शरीर में नीरोग, और खेती आदि में उसके प्रयोग से अन्न आदि प्राप्त करके बड़े वेगवान् और बलवान् होवें ॥४॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का चौथा पाद आया है-अ० १।४।४ ॥ ४−(अपाम्) व्यापनशीलानां जलानाम् (अह) विनिग्रहे। निश्चयेन (दिव्यानाम्) दिवि आकाशे, भवानाम् (अपाम्) व्यापनशीलानाम् (स्रोतस्यानाम्) स्रोतम्−यत्। स्रोतःसु प्रवाहेषु भवानाम् (अपाम्) जलानाम् (अह) (प्रणेजने) णिजिर् शौचपोषणयोः−ल्युट्। शोधने। पोषणे (अश्वाः) बलवन्तः पुरुषाः। तुरगा इव बलवन्तः (भवथ) थनादेशः। भवत (वाजिनः) वेगवन्तः ॥

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    विषय

    जलों के द्वारा प्रणेजन [रोगशुद्धि व पोषण]

    पदार्थ

    १. (अह) = निश्चय से (दिव्यानाम् अपाम्) = अन्तरिक्ष से वृष्ट होनेवाले जलों के, (स्त्रोतस्यानाम्) = स्रोतों से प्राप्त होनेवाले जलों के, (अह) = और (अपाम्) = अन्य जलों के प्रणेजने शोधन व पोषण के होने पर, अर्थात् इन जलों के द्वारा रोग-निवृत्ति व पुष्टि प्राप्त होने पर तुम (वाजिनः) = शक्तिशाली (अश्वा:) = सदा कर्मों में व्याप्त होनेवाले आलस्यशून्य मनुष्य (भवथ) = बनो।

    भावार्थ

    जलों द्वारा शरीर-शुद्धि व पोषण होने पर हम शक्तिशाली कर्मों में व्याप्त आलस्यशून्य जीवनवाले बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (दिव्यानाम्) आकाश के अधिक ऊँचे स्थल से बरसते हुए (अपाम्) जलों के, तथा (स्रोतस्यानाम्) भूमि के स्रोतों से उपजे (अपाम्) जलों के, और (अपाम्) अन्य स्वच्छ जलों के सामर्थ्यों द्वारा (प्रणेजने) शारीरिक मलों से शुद्ध हो जाने पर, हे मनुष्यों! तुम (अश्वाः) अश्वों के सदृश बलवान् तथा (वाजिनः) वेगोंवाले (भवथ) हो जाओ।

    टिप्पणी

    [अह= विनिग्रहार्थीय‌‌:। “अह” शब्द पृथक्-पृथक् जलों के पृथक्-पृथक् गुणों को दर्शाता है। आकाश के जितने ऊँचे स्थल से वर्षाजल बरसेगा, वह उतना ही अधिक शुद्ध होगा, इस भावना का द्योतक “दिव्य” शब्द है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apah

    Meaning

    On being washed and cleaned by divine waters of rain, waters of running streams, you would become as strong and swift as war horses.

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    Translation

    For cleaning the waters, other than those coming from the Sky, and other than those obtained from the following streams, be quick and speedy:

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    Translation

    Ye learned men, you become always the possessors of knowledge, force and grain, on being provided with the purity and vigor of the waters rained from the sky and waters of springs and other waters.

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    Translation

    O man, who are fleet and strong Like horses, be active, powerful and learned under the purifying influence of the waters from heavens, springs and other sources.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र का चौथा पाद आया है-अ० १।४।४ ॥ ४−(अपाम्) व्यापनशीलानां जलानाम् (अह) विनिग्रहे। निश्चयेन (दिव्यानाम्) दिवि आकाशे, भवानाम् (अपाम्) व्यापनशीलानाम् (स्रोतस्यानाम्) स्रोतम्−यत्। स्रोतःसु प्रवाहेषु भवानाम् (अपाम्) जलानाम् (अह) (प्रणेजने) णिजिर् शौचपोषणयोः−ल्युट्। शोधने। पोषणे (अश्वाः) बलवन्तः पुरुषाः। तुरगा इव बलवन्तः (भवथ) थनादेशः। भवत (वाजिनः) वेगवन्तः ॥

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