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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सिन्धुद्वीपम् देवता - आपः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपः सूक्त
    57

    ता अ॒पः शि॒वा अ॒पोऽय॑क्ष्मं॒कर॑णीर॒पः। यथै॒व तृ॑प्यते॒ मय॒स्तास्त॒ आ द॑त्त भेष॒जीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः। अ॒पः। शि॒वाः। अ॒पः। अ॒य॒क्ष्म॒म्ऽकर॑णीः। अ॒पः। यथा॑। ए॒व। तृ॒प्य॒ते॒। मयः॑। ताः। ते॒। आ। द॒त्त॒। भे॒ष॒जीः ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता अपः शिवा अपोऽयक्ष्मंकरणीरपः। यथैव तृप्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अपः। शिवाः। अपः। अयक्ष्मम्ऽकरणीः। अपः। यथा। एव। तृप्यते। मयः। ताः। ते। आ। दत्त। भेषजीः ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (4)

    विषय

    जल के उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (ताः) उन (शिवाः) मङ्गलकारी (अपः) जलों को, (अयक्ष्मंकरणीः) नीरोगता करनेवाले (अपः) जलों को और (ताः) उन (भेषजीः) भय जीतनेवाले (अपः) जलों को (आ) सब ओर से (दत्त) उस [परमेश्वर] ने दिया है, (यथा) जिससे (एव) निश्चय करके (ते) तेरे लिये (मयः) सुख (तृप्यते) बढ़े ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने, संसार में वृष्टि, नदी, कूप आदि का जल इसलिये दिया है कि मनुष्य जलचिकित्सा करके नीरोग होवें, और खेती शिल्प आदि में प्रयोग से हृष्ट-पुष्ट रहें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(ताः) पूर्वोक्ताः (अपः) जलानि (शिवाः) मङ्गलकरीः (अपः) (अयक्ष्मंकरणीः) आढ्यसुभगस्थूल०। पा० ३।२।५६। अयक्ष्म+करोतेः−ल्युन्, बाहुलकात्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। मुमागमः। आरोग्यकारिणीः (अपः) (यथा) येन प्रकारेण (एव) निश्चयेन (तृप्यते) वर्धते (मयः) सुखम् (ताः) अपः (ते) तुभ्यम् (आ) समन्तात् (दत्त) डुदाञ् दाने−लङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। पा० ६।४।७५। अडभावः। अदत्त। दत्तवान् स परमेश्वरः (भेषजीः) भयनिवारिकाः ॥

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    विषय

    'भेषजी:' अपः

    पदार्थ

    १. (ता:) = वे (अप:) = जल (शिवाः अप:) = कल्याणकारी जल हैं। ये (अप:) = जल (अयक्ष्मंकरणी:) = यक्ष्मा आदि रोगों को दूर करनेवाले हैं। २. अत: (ते) = वे आप लोग (ता:) = उन (भेषजी:) = औषधभूत जलों को (आदत्त) = स्वीकार करो-इसप्रकार ग्रहण करो (यथा) = जिससे (मयः) = कल्याण, सुख व नीरोगता-(तृप्यते एव) = बढ़ती ही है।

    भावार्थ

    जल नीरोगता देनेवाले हैं। इनके ठीक प्रयोग से सुख-वृद्धि होती है। जलों के ठीक प्रयोग से स्वस्थ बना हुआ यह पुरुष-'अथर्वा' बनता है। शरीर के स्वस्थ होने पर स्वस्थ मनवाला बनता है-डॉवाडोल नहीं होता। यह अंग-प्रत्यंग में रसवाला'अंगिरा:' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (ताः अपः) उन जलों को, (शिवाः अपः) कल्याणकारी जलों को, (अयक्ष्मंकरणीः अपः) यक्ष्म रोग न होने देने वाले, या यक्ष्मरोग-निवारक जलों को, (ताः भेषजीः) उन भेषज अर्थात् औषधरूप जलों को (आदत्त) तुम ग्रहण करो। (ते) हे रोगी! तेरे लिये (मयः) जलसेवन द्वारा सुख हो, (यथा एव) जैसे ही कि (तृप्यते) तृप्त व्यक्ति के लिये (मयः) सुख होता है।

    टिप्पणी

    [भिन्न-भिन्न भूभागों और आकाश के जलों में, उस-उस भाग के विशेष तत्त्व मिश्रित हो जाते हैं। इसलिये उन जलों के गुणों में भी विशेषताएँ आ जाती हैं। इन विविध प्रदेशों के जलों के प्रयोगों द्वारा विविध रोगों का विनाश होता, और तद्-द्वारा शान्ति मिलती है। अथर्ववेद में जल-चिकित्सा के कई लाभ दर्शाएं हैं। यथा—जल, बल और प्राणशक्ति देते हैं— “ऊर्जे दधातन” (१.५.१)। आँखों को महारमणीय बनाते हैं—“महे रणाय चक्षसे” (१.५.२)। हमें नवजीवन प्रदान करते हैं— “आपो जनयथा च नः” (१.५.३)। जल आँखों एड़ियाॅं और पैरों के अग्रभागों की जलन को दूर करते हैं— “यन्मे अक्ष्योरादिद्योत पार्ष्ण्योः प्रपदोश्च यत्। आपस् तत् सर्वं निष्करन्” (६.२४.२)। जलों में सब भेषज विद्यमान हैं, और इनमें अग्नि (=विद्युत) होती है, जो कि सब रोगों को शान्त करती है—“अप्सु.....अन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्” (१.६.२)। इसी प्रकार अथर्ववेद में जल-चिकित्सा का और भी पर्याप्त वर्णन है।]

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    विषय

    शान्तिदायक जलों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! (ताः) वे नाना प्रकार के (अपः) जल (शिवाः अपः) शिव कल्याणकारी जल कहाते हैं जो (अपः) जल (अयक्ष्मंकरणीः) राजयक्ष्मा आदि रोगों को उत्पन्न नहीं करते। (ते) वे आपलोग (ताः) उन उन (भेषजीः) रोगहारक, ओषधरूप जलों का (आदत्त) ग्रहण करो (यथैव) जिस प्रकार से या जिनसे (मयः तृप्यते) सुख बराबर बढ़े।

    टिप्पणी

    (प्र० द्वि०) ‘आपः’ इति सायणाभिभतः। (च०) ‘आदुत्त’,‘आदुत’, ‘आद्रुत’, ‘आहुत’, इति नानापाठाः। (तृ०) ‘तृप्यते’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सिन्धुद्वीप ऋषिः। आपो देवता अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apah

    Meaning

    Waters are givers of peace and well being. Waters are the cure against disease. Just as waters are satisfying to the needy, so are they to you. Take on to waters efficacious as medicine.

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    Translation

    Those auspicious waters, those waters that cure the wasting disease - they have brought for you, so that you may have more comfort.

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    Translation

    Ye men, you obtain these waters which are auspicious waters and which are the waters bringing health. You have these healing waters as your comfort requires to be fulfilled.

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    Translation

    O learned persons, get hold of the waters of various qualities, soothing consumption-healing and possessing other healing powers, so that happiness and well-being of the people may be provided.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(ताः) पूर्वोक्ताः (अपः) जलानि (शिवाः) मङ्गलकरीः (अपः) (अयक्ष्मंकरणीः) आढ्यसुभगस्थूल०। पा० ३।२।५६। अयक्ष्म+करोतेः−ल्युन्, बाहुलकात्। अरुर्द्विषदजन्तस्य मुम्। पा० ६।३।६७। मुमागमः। आरोग्यकारिणीः (अपः) (यथा) येन प्रकारेण (एव) निश्चयेन (तृप्यते) वर्धते (मयः) सुखम् (ताः) अपः (ते) तुभ्यम् (आ) समन्तात् (दत्त) डुदाञ् दाने−लङ्। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि। पा० ६।४।७५। अडभावः। अदत्त। दत्तवान् स परमेश्वरः (भेषजीः) भयनिवारिकाः ॥

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