अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
सूक्त - सविता
देवता - औदुम्बरमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - औदुम्बरमणि सूक्त
दे॒वो म॒णिः स॑पत्न॒हा ध॑न॒सा धन॑सातये। प॒शोरन्न॑स्य भू॒मानं॒ गवां॑ स्फा॒तिं नि य॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः। म॒णिः। स॒प॒त्न॒ऽहाः। ध॒न॒ऽसाः। धन॑ऽसातये। प॒शोः। अन्न॑स्य। भू॒मान॑म्। गवा॑म्। स्फा॒तिम्। नि। य॒च्छ॒तु॒ ॥३१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो मणिः सपत्नहा धनसा धनसातये। पशोरन्नस्य भूमानं गवां स्फातिं नि यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठदेवः। मणिः। सपत्नऽहाः। धनऽसाः। धनऽसातये। पशोः। अन्नस्य। भूमानम्। गवाम्। स्फातिम्। नि। यच्छतु ॥३१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 31; मन्त्र » 8
विषय - औदुम्बर मणि के रूप में अन्नाध्यक्ष, पुष्टपति का वर्णन।
भावार्थ -
पूर्वोक्त (देवः) सब पदार्थों का प्रदाता (मणि) नर शिरोमणि पुरुष (सपत्नहा) शत्रुओं का नाशकारी होकर और (धनसा) नाना प्रकार के धन ऐश्वर्यों का प्रदाता होकर (धनसातये) हमें ऐश्वर्य लाभ के लिये उपयोगी है। वह हमें (पशोः) पशु (अन्नस्य) अन्न और (गवां) गो आदि नाना पशुओं की (भूमानम्) बहुत भारी (स्फातिम्) वृद्धि को (नियच्छतु) प्रदान करे।
टिप्पणी -
(च०) ‘स्फातिर्नि’ इति क्वचित्। (तृ०) ‘यौ मानं’ इति पैप्प०सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पुष्टिकामः सविता ऋषिः। मन्त्रोक्त उदुम्बरमणिर्देवता। ५, १२ त्रिष्टुभौ। ६ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। ११, १३ पञ्चपदे शक्वर्य्यौ। १४ विराड् आस्तारपंक्तिः। शेषा अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
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