अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
सूक्त - भृगुः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दर्भ सूक्त
ती॒क्ष्णो राजा॑ विषास॒ही र॑क्षो॒हा वि॒श्वच॑र्षणिः। ओजो॑ दे॒वानां॒ बल॑मु॒ग्रमे॒तत्तं ते॑ बध्नामि ज॒रसे॑ स्व॒स्तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठती॒क्ष्णः। राजा॑। वि॒ऽस॒स॒हिः। र॒क्षः॒ऽहा। वि॒श्वऽच॑र्षणिः। ओजः॑। दे॒वाना॑म्। बल॑म्। उ॒ग्रम्। ए॒तत्। तम्। ते॒। ब॒ध्ना॒मि॒। ज॒रसे॑। स्व॒स्तये॑ ॥३३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तीक्ष्णो राजा विषासही रक्षोहा विश्वचर्षणिः। ओजो देवानां बलमुग्रमेतत्तं ते बध्नामि जरसे स्वस्तये ॥
स्वर रहित पद पाठतीक्ष्णः। राजा। विऽससहिः। रक्षःऽहा। विश्वऽचर्षणिः। ओजः। देवानाम्। बलम्। उग्रम्। एतत्। तम्। ते। बध्नामि। जरसे। स्वस्तये ॥३३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
विषय - ‘दर्भ’, ‘अग्नि’ नामक अभिषिक्त राजा।
भावार्थ -
(तीक्ष्णः) अति तीक्ष्ण, दूसरे के अत्याचार को सहन करने में असमर्थ (राजा) सर्वोपरि राजमान् प्रजा का अनुरञ्जक सबका स्वामी, (विषासहिः) विविध उपायों से शत्रु को पराजय करने वाला, (रक्षोहा) राष्ट्रव्यवस्था में विघ्नकारी, दुष्ट पुरुषों का नाशक, (विश्वचर्षणिः) समस्त राष्ट्र का द्रष्टा, (देवानाम्) देवों विद्वान् पुरुषों का (भोजः) पराक्रमस्वरूप और (एतत्) ये मूर्त्तिमान् (उग्रम् बलम्) उग्र भयंकर बल है (तम्) उसको हे राजन् ! और राष्ट्रवन् ! (ते) तेरे (जरसे) वृद्धावस्था तक के (स्वस्तये) कल्याण के लिये (बध्नामि) नियुक्त करता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सर्वकामो भृगुर्ऋषिः। दर्भो देवता। १ जगती। २, ५ त्रिष्टुभौ। ३ आर्षी पंक्तिः। ४ आस्तारपंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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