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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त

    इन्द्र॑स्य॒ नाम॑ गृ॒ह्णन्त॒ ऋष॑यो जङ्गि॒डं द॑दुः। दे॒वा यं च॒क्रुर्भे॑ष॒जमग्रे॑ विष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। नाम॑। गृ॒ह्णन्तः॑। ऋष॑यः। ज॒ङ्गि॒डम्। द॒दुः॒। दे॒वाः। यम्। च॒क्रुः। भे॒ष॒जम्। अग्रे॑। वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य नाम गृह्णन्त ऋषयो जङ्गिडं ददुः। देवा यं चक्रुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। नाम। गृह्णन्तः। ऋषयः। जङ्गिडम्। ददुः। देवाः। यम्। चक्रुः। भेषजम्। अग्रे। विस्कन्धऽदूषणम् ॥३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् इन्द्र या राजा का नाम (गृह्णन्तः) ग्रहण करते हुए, अर्थात् उस जङ्गिड, शत्रुनाशक पुरुष के लिये ‘इन्द्र’ राजा का नाम, उपाधि स्वीकार करते हुए (ऋषयः) ऋषि, तत्वदर्शी लोग प्रजा के लिये (जङ्गिडं) शत्रुनाशक उस पुरुष को ही (ददुः) प्रदान करते हैं, प्रस्तुत करते हैं। (यम्) जिसको (देवाः) देव, विद्वान् पुरुष (अग्रे) सब से आगे, सर्वप्रथम (विष्कन्धदूषणम्) शत्रु के विविध सेनाओं को नाश करने वाला (भेषजम्) उपाय (चक्रुः) बनाते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। जंगिड़ो देवता। ३ पंथ्यापंक्तिः। ४ निचृत् त्रिष्टुप्। शेषा अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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