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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त

    स नो॑ रक्षतु जङ्गि॒डो ध॑नपा॒लो धने॑व। दे॒वा यं च॒क्रुर्ब्रा॑ह्म॒णाः प॑रि॒पाण॑मराति॒हम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः। नः॒। र॒क्ष॒तु॒। ज॒ङ्गि॒डः। ध॒न॒ऽपा॒लः। धना॑ऽइव। दे॒वाः। यम्। च॒क्रुः। ब्रा॒ह्म॒णाः। प॒रि॒ऽपान॑म्। अ॒रा॒ति॒ऽहम् ॥३५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो रक्षतु जङ्गिडो धनपालो धनेव। देवा यं चक्रुर्ब्राह्मणाः परिपाणमरातिहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। रक्षतु। जङ्गिडः। धनऽपालः। धनाऽइव। देवाः। यम्। चक्रुः। ब्राह्मणाः। परिऽपानम्। अरातिऽहम् ॥३५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (धनपालः) धन का पालक, राजा का धनाध्यक्ष (धनाइव) जिस प्रकार धनों की रक्षा करता है ऐसे ही (जङ्गिड) वह शत्रु नाशक पुरुष भी हमारी (रक्षतु) रक्षा करे (यं) जिसको (ब्राह्मणाः) ब्रह्म वेद के विद्वान् पुरुष और (देवाः) दानशील राजा लोग (परिपाणम्) चारों ओर से रक्षा करने, (अरातिहम्) और शत्रुओं को नाश करने में समर्थ (चक्रुः) बनाते हैं। अर्थात् उसको रक्षा करने और शत्रुनाश करने के समस्त उपाय और अधिकार प्रदान करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। जंगिड़ो देवता। ३ पंथ्यापंक्तिः। ४ निचृत् त्रिष्टुप्। शेषा अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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