अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
आक्ष्वैकं॑ म॒णिमेकं॑ कृणुष्व स्ना॒ह्येके॒ना पि॒बैक॑मेषाम्। चतु॑र्वीरं नैरृ॒तेभ्य॑श्च॒तुर्भ्यो॒ ग्राह्या॑ ब॒न्धेभ्यः॒ परि॑ पात्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठआ। अ॒क्ष्व॒। एक॑म्। म॒णिम्। एक॑म्। कृ॒णु॒ष्व॒। स्ना॒हि। एके॑न। आ। पि॒ब॒। एक॑म्। ए॒षा॒म्। चतुः॑ऽवीरम्। नैः॒ऽऋ॒तेभ्यः॑। च॒तुःऽभ्यः॑। ग्राह्याः॑। ब॒न्धेभ्यः॑। परि॑। पा॒तु॒। अ॒स्मान् ॥४५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आक्ष्वैकं मणिमेकं कृणुष्व स्नाह्येकेना पिबैकमेषाम्। चतुर्वीरं नैरृतेभ्यश्चतुर्भ्यो ग्राह्या बन्धेभ्यः परि पात्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। अक्ष्व। एकम्। मणिम्। एकम्। कृणुष्व। स्नाहि। एकेन। आ। पिब। एकम्। एषाम्। चतुःऽवीरम्। नैःऽऋतेभ्यः। चतुःऽभ्यः। ग्राह्याः। बन्धेभ्यः। परि। पातु। अस्मान् ॥४५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
विषय - रक्षक और विद्वान् ‘आञ्जन’।
भावार्थ -
(एकम्) एक वीर को (आ अक्ष्व) सर्वत्र विचरने की आज्ञा दे। और (एकम्) एकको (मणिम्) सबका शिरोमणि (कृणुष्व) बना (एकेन) एकके बलपर (स्नाहि) अपना राज्याभिषेक कर और (एषाम्) इनमें से (एकम्) एक का (पिब) पान कर अर्थात् प्रजारूप से उपयोग कर। ये (चतुर्वीरम्) चार वीरों से युक्त वीर (अस्मान्) हमको (चतुर्भ्यः) चार प्रकार के (नैर्ऋतेभ्यः) पाप, अनाचार सम्बन्धी (ग्राह्याः) ग्राही पकड़ लेने वाली क़ैद आदि बन्धनों से (परिपातु) सुरक्षित रक्खें। अथवा पाठान्तर है—(स्नाहि एकेना पिवैकमेषां चतुर्वीरम्० इत्यादि) (अपि वा) और (एषाम्) उनमें से (एकं चतुर्वीरः) एक चार सामर्थ्यों से युक्त होकर हमें क़ैद के चार प्रकार के बन्धनों से सुरक्षित रक्खे।
अध्यात्म में—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार सामर्थ्यों से युक्त प्रभु ‘आंजन’ है, चारों में से धर्म से प्रसिद्धि प्राप्त करे, अर्थ से लक्ष्मी संग्रह करे, मोक्ष से स्नान करे, पवित्र हो और कामका भोग करे। और चारों सामर्थ्य प्राप्त करके ग्राही, अविद्या के चतुर्विध बन्धनों से मुक्त रहे।
टिप्पणी -
(प्र०) ‘आंक्ष्व’ इति सायणाभिमतः। ‘आक्षकं म—’ इति पैप्प सं०। (द्वि०) ‘स्नाह्येकेनापि वैकमेषाम्’ इति च पाठः। तत्र स्नाहि। एकेन। अपि। वा। एकेषाम्। इति प्रायः पदपाठः। ‘श्वाशिवेन पविकमेषाम्’ इति पैप्प० सं०। ‘एकेनाविवेकमेषाम्’ (च०) ‘परिपान्तु’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुऋषिः। आञ्जनं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। ३, ५ त्रिष्टुभः। ६-१० एकावसानाः महाबृहत्यो (६ विराड्। ७-१० निचृत्तश्च)। दशर्चं सूक्तम्।
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