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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जगद् राजा सूक्त
इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॑ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यद॑स्ति। ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑। राजा॑। जग॑तः। च॒र्ष॒णी॒नाम्। अधि॑। क्षमि॑। विषु॑ऽरूपम्। यत्। अस्ति॑। ततः॑। द॒दा॒ति॒। दा॒शुषे॑। वसू॑नि। चोद॑त्। राधः॑। उप॑ऽस्तुतः। चि॒त्। अ॒र्वाक् ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो राजा जगतश्चर्षणीनामधि क्षमि विषुरूपं यदस्ति। ततो ददाति दाशुषे वसूनि चोदद्राध उपस्तुतश्चिदर्वाक् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। राजा। जगतः। चर्षणीनाम्। अधि। क्षमि। विषुऽरूपम्। यत्। अस्ति। ततः। ददाति। दाशुषे। वसूनि। चोदत्। राधः। उपऽस्तुतः। चित्। अर्वाक् ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
विषय - उपास्य देव।
भावार्थ -
(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्, परमात्मा (जगतः) समस्त जगत् का, (चर्षणीनाम्) समस्त प्रजाओं का और (अधिक्षमि) इस पृथिवी पर (यत्) जो कुछ भी (विषुरूपम्) नाना प्रकार के पदार्थ हैं उन सबका (राजा) स्वामी, राजा है। वह (ततः) उस अपने खजाने में से ही (दाशुषे) दानशील पुरुष को (वसूनि) नाना जीवनोपयोगी धन, ऐश्वर्य (ददाति) प्रदान करता है। वह ही (चित् उपस्तुतः) भक्तिपूर्वक स्तुति करने योग्य है। वह हमें (अर्वाक्) नित्य हमारे प्रति (राधः) धन ऐश्वर्य और ज्ञान (चोदत्) प्रदान करे।
टिप्पणी -
ऋग्वेदे वसिष्ठ ऋषिः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्।
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