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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आत्मा
छन्दः - एकावसाना त्रिपदा यवमध्योष्णिक्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्यां॒ प्रसू॑त॒ आ र॑भे ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः॒। प्र॒ऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। प्रऽसू॑तः। आ। र॒भे॒ ॥५१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रसूत आ रभे ॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य। त्वा। सवितुः। प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। प्रऽसूतः। आ। रभे ॥५१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
विषय - आत्मसाधना।
भावार्थ -
(सवितुः) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक परमेश्वर (देवस्य) देव के (प्रसवे) शासन में और (अश्विनोः) दोनों अश्विन् स्त्री पुरुषों प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बाहुओं से और (पूष्णः) सर्व पुष्टिकारक पालक पुरुष के हाथों से (प्रसूतः) मैं प्रेरित होकर (आरभे) तुझे ग्रहण करता हूं। या (आरभे) अपना कार्य प्रारम्भ करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। १ आत्मा। २ सविता च देवते। १ एकपदाऽनुष्टुप्। २ त्रिपदायवमध्योष्णिक्। (१, २ एकावसाने) द्वयृचं सूक्तम्।
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