अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
दू॒राच्च॑कमा॒नाय॑ प्रतिपा॒णायाक्ष॑ये। आस्मा॑ अशृण्व॒न्नाशाः॒ कामे॑नाजनय॒न्त्स्वः ॥
स्वर सहित पद पाठदू॒रात्। च॒क॒मा॒नाय॑। प्र॒ति॒ऽपा॒नाय॑। अक्ष॑ये। आ। अ॒स्मै॒। अ॒शृ॒ण्व॒न्। आशाः॑।कामे॑न। अ॒ज॒न॒य॒न्। स्वः᳡ ॥५२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दूराच्चकमानाय प्रतिपाणायाक्षये। आस्मा अशृण्वन्नाशाः कामेनाजनयन्त्स्वः ॥
स्वर रहित पद पाठदूरात्। चकमानाय। प्रतिऽपानाय। अक्षये। आ। अस्मै। अशृण्वन्। आशाः।कामेन। अजनयन्। स्वः ॥५२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
विषय - ‘काग’ परमेश्वर।
भावार्थ -
(दूरात्) दूर दूर तक (चक्रमानाय) प्रबल कामना या संकल्प करते हुए (प्रतिपाणाय [परिपाणाय ]) प्रत्येक पदार्थ पर अपना व्यापार करने में समर्थ (अक्षये) व्यापक, सर्वाधिष्ठातृरूप, या सर्वद्रष्टारूप, (अस्मै) इस महान् परमेश्वर की आज्ञाओं को (कामेन) उस महान् का मनोमय संकल्प के बल से (आशाः) समस्त आशा अर्थात् दिशाएं (आ अशृण्वन्) सर्वत्र श्रवण करती हैं, उसकी आज्ञा को मानती हैं। और उसी (कामेन) कमनीय, कान्तिमय प्रभु के सामर्थ्य से वे (स्वः) सर्वत्र सुखमय लोकको (अजनयन्) बनाती हैं या (कामेन) उसके महान् संकल्प से (स्वः) दूरस्थ तेजोमय लोकों को वे दिशाएं अपने भीतर (अजनयन्) रचना करती हैं।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘प्रविपाणायः’ ‘प्रतिपाणाय०’ इति पाठौ क्वचित्। ‘प्रविपाणाय’ इति ह्विटनिः। ‘प्रतिपाणाक्षे’, (तृ०) आस्मा ‘शृण्वन्’ (च०) ‘जनयत् सह’ इति पैप्प० सं०। सद्यश्चकमानाय प्रवेपनाय मृत्यवे प्रास्मा आशा अशृण्वन् कामेनाजनयत् पुनः। इति तै० आ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्माऋषिः। मन्त्रोक्तः कामो देवता। कामसूक्तन्। १, २, ४ त्रिष्टुभः। चतुष्पदा उष्णिक्। ५ उपरिष्टाद् बृहती। पञ्चर्चं सूक्तम्।
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