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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 57

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 57/ मन्त्र 3
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - त्र्यवसाना चतुष्पदा त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त

    देवा॑नां पत्नीनां गर्भ॒ यम॑स्य कर॒ यो भ॒द्रः स्व॑प्न। स मम॒ यः पा॒पस्तद्द्वि॑ष॒ते प्र हि॑ण्मः। मा तृ॒ष्टाना॑मसि कृष्णशकु॒नेर्मुख॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवा॑नाम्। प॒त्नी॒ना॒म्। ग॒र्भ॒। यम॑स्य। क॒र॒। यः। भ॒द्रः। स्व॒प्न॒। सः। मम॑। यः। पा॒पः। तत्। द्वि॒ष॒ते। प्र। हि॒ण्मः॒। मा। तृ॒ष्टाना॑म्। अ॒सि॒। कृ॒ष्ण॒ऽश॒कु॒नः। मुख॑म् ॥५७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानां पत्नीनां गर्भ यमस्य कर यो भद्रः स्वप्न। स मम यः पापस्तद्द्विषते प्र हिण्मः। मा तृष्टानामसि कृष्णशकुनेर्मुखम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम्। पत्नीनाम्। गर्भ। यमस्य। कर। यः। भद्रः। स्वप्न। सः। मम। यः। पापः। तत्। द्विषते। प्र। हिण्मः। मा। तृष्टानाम्। असि। कृष्णऽशकुनः। मुखम् ॥५७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 57; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे स्वप्न ! निद्रा प्रमाद ! तू (देवनाम्) देव, विषयों में खेलने वाले इन्द्रियों की (पत्नीनाम्) पालन करने वाली शक्तियों या वृत्तियों को (गर्भ [गर्भः]) ग्रहण करने वाला, उनको बांधने वाला है। और तू (यमस्य) बन्धनकारी प्रभाव का (कर [णः]) उत्पन्न करने वाला है। हे स्वप्न ! (यः) जो तेरा स्वरूप (भद्रः) कल्याण और सुखकारी है (सः) वह तू (मम) मुझे प्राप्त हो और (यः पापः) जो पापजनक रूप है (तत्) उसको (द्विषते) शत्रु के निमित्त (प्र हिण्मः) परे कर दें। हे स्वप्न ! तू (तृष्टानाम्) विषय तृष्णालुओं के लिये (कृष्णशकुनेः) काले शक्तिशाली घोर पापका (मुखम्) मुख अर्थात् प्रवर्त्तक (मा असि) मत हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुस्वप्ननाशनो देवता। १ अनुष्टुप्। ३ त्र्यवसाना चतुष्पा त्रिष्टुप्। ४ उष्णिग् बृहतीगर्भा विराड् शक्वरीच। ५ त्र्यवसाना पञ्चपदा परशाक्वरातिजगती। पञ्चर्चं सूक्तम्।

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