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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
यद॑ग्ने॒ यानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु मे शि॒वं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒ग्ने॒। यानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारू॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। मे॒। शि॒वम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥६४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने यानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि। सर्वं तदस्तु मे शिवं तज्जुषस्व यविष्ठ्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अग्ने। यानि। कानि। चित्। आ। ते। दारूणि। दध्मसि। सर्वम्। तत्। अस्तु। मे। शिवम्। तत्। जुषस्व। यविष्ठ्य ॥६४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
विषय - आचार्य और परमेश्वर से ज्ञान और दीर्घायु की प्राप्ति।
भावार्थ -
हे (अग्ने) अग्ने ! ज्ञानवन् परमेश्वर या आचार्य ! (ते) तेरे हम (यानि कानि चित्) जो कुछ भी (दारूणि) अग्नि में काष्ठों के समान अपने आदर सत्कार करने योग्य पदार्थ या आदरपूर्वक स्तुतियां (आ दध्मसि) उपस्थित करते हैं (तत्) उस सब कुछ को हे (यविष्ठ्य) शक्तिशालिन् ! पूज्यतम ! (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार कर। (तत् सर्वम्) वह सब (मे) मुझे (शिवम् अस्तु) शिव, कल्याणकारी हो।
टिप्पणी -
कानिकानि० (च०) ‘ता’ इति ऋ०। (तृ०) ‘त्वदस्तु तद् घृतम्’ इति प्रायः। ऋग्वेदादिषु ‘यविष्ठ’ इति क्वचित।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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