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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    40

    यद॑ग्ने॒ यानि॒ कानि॑ चि॒दा ते॒ दारू॑णि द॒ध्मसि॑। सर्वं॒ तद॑स्तु मे शि॒वं तज्जु॑षस्व यविष्ठ्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। अ॒ग्ने॒। यानि॑। कानि॑। चि॒त्। आ। ते॒। दारू॑णि। द॒ध्मसि॑। सर्व॑म्। तत्। अ॒स्तु॒। मे॒। शि॒वम्। तत्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒ ॥६४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्ने यानि कानि चिदा ते दारूणि दध्मसि। सर्वं तदस्तु मे शिवं तज्जुषस्व यविष्ठ्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अग्ने। यानि। कानि। चित्। आ। ते। दारूणि। दध्मसि। सर्वम्। तत्। अस्तु। मे। शिवम्। तत्। जुषस्व। यविष्ठ्य ॥६४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    भौतिक अग्नि के उपयोग का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (यानि कानि चित्) जिन-किन ही (दारूणि) काष्ठों को (ते) तेरे लिये (यत्) जो कुछ (आ दध्मसि) हम लाकर धरते हैं। (तत् सर्वम्) वह सब (मे) मेरे लिये (शिवम्) कल्याणकारी (अस्तु) होवे, (यविष्ठ्य) हे अत्यन्त संयोजक-वियोजकों में साधु ! [योग्य] (तत्) उस [काष्ठ आदि] को (जुषस्व) तू सेवन कर ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य काष्ठ आदि पदार्थों को अग्नि में हवन और शिल्पसिद्धि के लिये सावधानी और विचार से छोड़ें, जिससे प्रज्वलित अग्नि द्वारा यथावत् कार्यसिद्धि होवे ॥३॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-११।७३ और ऋग्वेद ८।१०२ [सायणभाष्य ९१] ॥२०॥३−(यत्) यत्-किञ्चित् (यानि कानि चित्) यानि सर्वाण्यपि (आ) आनीय (ते) तुभ्यम् (दारूणि) काष्ठानि (दध्मसि) धरामः। आरोपयामः (सर्वम्) (तत्) (अस्तु) (मे) मह्यम् (शिवम्) कल्याणकरम् (तत्) समग्रम् (जुषस्व) सेवस्व (यविष्ठ्य) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुव०। पा० ६।४।१५६। वलोपे गुणे च। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यविष्ठ-यत्। हे युवतमेषु अतिशयेन संयोजकवियोजकेषु साधो योग्य ॥

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    भाषार्थ

    (यविष्ठ्य) वस्तुओं के संयोग-विभाग अर्थात् मिश्रण और अमिश्रण में समर्थ (अग्ने) हे अग्नि! (ते) तेरे लिये (यानि कानिचिद्) जो कोई भी (दारूणि) काष्ठ अर्थात् इन्धन और समिधाएँ (आ दध्मसि) तुझ में हम आधान करते हैं, (तद् सर्वम्) वह सब प्रकार का काष्ठ (मे) मुझ प्रत्येक ब्रह्मचारी को (शिवम्) कल्याणकारी (अस्तु) हो, (तत्) उस काष्ठ को (जुषस्व) तू सेवन कर।

    टिप्पणी

    [कविता की दृष्टि से जड़ अग्नि का सम्बोधन किया गया है। सात्त्विक और मेधावर्धक ओषधि-वनस्पतियों के इन्धन और समिधाओं के अभाव में, किसी भी काष्ठ का प्रयोग अग्निहोत्र के लिये किया जा सकता है, ताकि अग्निहोत्र-व्रत भंग न होने पाए। यविष्ठ्य=यु मिश्रणामिश्रणयोः।]

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    विषय

    यज्ञाग्नि की प्रियता का सम्पादन

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (ते) = तेरे लिए (यानि कानि चित् दारूणि) = जिन किन्हीं भी [यज्ञिय व अयजिय] काष्ठों को (यत्) = जब (आदध्मसि) = धारण करते हैं, (सर्वं तत्) = वह सब काष्ठ मे (शिवम्) = मेरे लिए कल्याणकर ही (अस्तु) = हो। जहाँ तक सम्भव होता है वहाँ तक हम यज्ञिय काष्ठों का ही प्रयोग करते है, परन्तु विवशता में दूसरे काष्ठों का प्रयोग भी हमारे लिए हानिकर न हो। अग्नि की छेदकशक्ति दोष को दूर करनेवाली हो। २. हे (यविष्ठय) = बुराइयों को दूर करनेवालों में सर्वाग्रणी अग्ने! तू (तत्) = उस काष्ठ को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक ग्रहण कर । विवशता में अयज्ञिय काष्ठ के प्रयोग से हम यज्ञाग्नि के अप्रिय न हो जाएँ।

    भावार्थ

    हम यज्ञ में यज्ञिय काष्ठों का ही प्रयोग करें। विवशता में अन्य काष्ठों का प्रयोग हमारे लिए हानिकर न हो। [कुछ कम लाभ तो होगा ही]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fullness and Growth

    Meaning

    O Agni, most youthful presence, whatever fuel sticks we can collect and offer in faith and service, pray accept and bless that all that may be good for us.

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    Translation

    O fire-divine, whatever pieces of firewood we bring and place for you. O young one may you enjoy that. May all this be propitious for me.

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    Translation

    Whatever wood be that which we put in this fire, be propitious for me and let this most powerful fire take it to consume.

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    Translation

    Oh! All-knowing God, or the teacher, whatever kinds of praises I offer these, like the wooden fuel to the fire, may all that be peaceful to me. Oh! Most-Potent, accept all that.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-११।७३ और ऋग्वेद ८।१०२ [सायणभाष्य ९१] ॥२०॥३−(यत्) यत्-किञ्चित् (यानि कानि चित्) यानि सर्वाण्यपि (आ) आनीय (ते) तुभ्यम् (दारूणि) काष्ठानि (दध्मसि) धरामः। आरोपयामः (सर्वम्) (तत्) (अस्तु) (मे) मह्यम् (शिवम्) कल्याणकरम् (तत्) समग्रम् (जुषस्व) सेवस्व (यविष्ठ्य) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुव०। पा० ६।४।१५६। वलोपे गुणे च। तत्र साधुः। पा० ४।४।९८। इति यविष्ठ-यत्। हे युवतमेषु अतिशयेन संयोजकवियोजकेषु साधो योग्य ॥

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