अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
यानि॒ नक्ष॑त्राणि दि॒व्यन्तरि॑क्षे अ॒प्सु भूमौ॒ यानि॒ नगे॑षु दि॒क्षु। प्र॑क॒ल्पयं॑श्च॒न्द्रमा॒ यान्येति॒ सर्वा॑णि॒ ममै॒तानि॑ शि॒वानि॑ सन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयानि॑। नक्ष॑त्राणि। दि॒वि। अ॒न्तरि॑क्षे। अ॒प्ऽसु। भूमौ॑। यानि॑। नगे॑षु। दि॒क्षु। प्रऽक॑ल्पयन्। च॒न्द्रमाः॑। यानि॑। एति॑। सर्वा॑णि। मम॑। ए॒तानि॑। शि॒वानि॑। स॒न्तु॒ ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु। प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयानि। नक्षत्राणि। दिवि। अन्तरिक्षे। अप्ऽसु। भूमौ। यानि। नगेषु। दिक्षु। प्रऽकल्पयन्। चन्द्रमाः। यानि। एति। सर्वाणि। मम। एतानि। शिवानि। सन्तु ॥८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
विषय - नक्षत्रों का वर्णन।
भावार्थ -
(यानि) जो नक्षत्र (दिवि) आकाश में विद्यमान हैं। (यानि) और जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष, वायुमण्डल में, (अप्सु) जलों में या समुद्रों में, (भूमौ) भूमि पर (नगेषु) पर्वतों पर और (दिक्षु) समस्त दिशाओं में दिखाई देते हैं और (यानि) जिन नक्षत्रों को (चन्द्रमाः) चन्द्र (प्रकल्पयन्) भोग करता हुआ (एति) प्राप्त होता है (एतानि सर्वाणि) वे सब (मम) मेरे लिये (शिवानि सन्तु) शिव, सुखकारी हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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