अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
अप॑पा॒पं प॑रिक्ष॒वं पुण्यं॑ भक्षी॒महि॒ क्षव॑म्। शि॒वा ते॑ पाप॒ नासि॑कां॒ पुण्य॑गश्चा॒भि मे॑हताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प॒ऽपा॒पम्। प॒रि॒ऽक्ष॒वम्। पुण्य॑म्। भ॒क्षी॒महि॑। क्षव॑म्। शि॒वा। ते॒। पा॒प॒। नासि॑काम्। पुण्य॑ऽगः। च॒। अ॒भि। मे॒ह॒ता॒म् ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अपपापं परिक्षवं पुण्यं भक्षीमहि क्षवम्। शिवा ते पाप नासिकां पुण्यगश्चाभि मेहताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअपऽपापम्। परिऽक्षवम्। पुण्यम्। भक्षीमहि। क्षवम्। शिवा। ते। पाप। नासिकाम्। पुण्यऽगः। च। अभि। मेहताम् ॥८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
विषय - नक्षत्रों का वर्णन।
भावार्थ -
(पापम्) पाप अर्थात् दूर करने योग्य, दोष से युक्त (परिक्षवम्) वर्जनीय अन्न को (अप) हम दूर करें। और (पुण्यम्) पुण्य पवित्र (क्षवम्*) अन्नका हम (भक्षीमहि) भोगकरें। हे (पाप) पाप ! पापी पुरुष (ते) ते (नासिकाम्) नासिका (अभि) पर (शिवा) कल्याणकारी जनता या स्त्री और (पुण्यगः च) पुण्य पवित्र मार्ग से जाने वाला पुरुष अर्थात् उत्तम स्त्री पुरुष दोनों (मेहताम्) मूत्र करें अर्थात् तेरा अपमान करें तुझे मान आदर न दें।
टिप्पणी -
क्षु—इत्यन्ननाम [ निघं० अ० ७। ९ ]
‘अनुहवं परिहवं परीवादंप रिक्षपम्’ दुस्वप्नं दुरुदितं तद्विषद्भ्यो दिशास्यहम्। अनुहूतं परिहूतं शकुनैर्यदशाकुनं मृगस्यसृतं अक्ष्ण्यातत् इत्या पा०। गृ० सू०। ‘परिच्छव’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गार्ग्य ऋषिः। मन्त्रोक्तानि नक्षत्राणि देवताः। ६ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १ विराट जगती। २, ५, ७ त्रिष्टुभः। ६ त्र्यवसाना षट्पदा अति जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें