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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    इ॒यं या प॑रमे॒ष्ठिनी॒ वाग्दे॒वी ब्रह्म॑संशिता। ययै॒व स॑सृ॒जे घो॒रं तयै॒व शान्ति॑रस्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम्। या। प॒र॒मे॒ऽस्थिनी॑। वाक्। दे॒वी। ब्रह्म॑ऽसंशिता। यया॑। ए॒व। स॒सृ॒जे। घोरम्। तया॑। ए॒व। शान्तिः॑। अ॒स्तु॒। नः॒ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता। ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम्। या। परमेऽस्थिनी। वाक्। देवी। ब्रह्मऽसंशिता। यया। एव। ससृजे। घोरम्। तया। एव। शान्तिः। अस्तु। नः ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (या) जो (इयम्) यह (परमेष्ठिनी) परम, सबके पालन में समर्थ, सर्वोपरि विद्यमान, परमेश्वर में स्थित (वाग् देवी) वाणी-रूप दिव्य शक्ति (ब्रह्मसंशिता) ब्रह्म, ब्रह्मवर्चस, ब्रह्मचर्य के बल से अति बलवती है, (यया एव) जिससे ही (घोरम्) अति घोर, भयानक कार्य (ससृजे) किये जा सकते हैं (तथा एव) उससे ही (नः) हमें (शान्तिः) सुखप्राप्ति (अस्तु) हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मऋषिः। शान्तिसूक्तम्। शान्तिर्देवता। १ विराड् उरो बृहती। ५ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः। ९ पञ्चपदा ककुम्मती। १२ त्र्यवसाना सप्तपदा अष्टिः। १४ चतुष्पदा संकृतिः। २, ४, ६, ८, १०, ११, १३ अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।

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