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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - शान्तिः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शान्ति सूक्त

    इ॒दं यत्प॑रमे॒ष्ठिनं॒ मनो॑ वां॒ ब्रह्म॑संशितम्। येनै॒व स॑सृ॒जे घो॒रं तेनै॒व शान्ति॑रस्तु नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम्। यत्। प॒र॒मे॒ऽस्थिन॑म्। मनः॑। वा॒म्। ब्रह्म॑ऽसंशितम्। येन॑। ए॒व। स॒सृ॒जे। घो॒रम्। तेन॑। ए॒व। शान्तिः॑। अ॒स्तु॒ । नः॒ ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं यत्परमेष्ठिनं मनो वां ब्रह्मसंशितम्। येनैव ससृजे घोरं तेनैव शान्तिरस्तु नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम्। यत्। परमेऽस्थिनम्। मनः। वाम्। ब्रह्मऽसंशितम्। येन। एव। ससृजे। घोरम्। तेन। एव। शान्तिः। अस्तु । नः ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 9; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (यत्) जो (इदम्) यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने योग्य (ब्रह्मसंशितम्) ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मचर्य के बल से तीक्ष्ण होकर (परमेष्ठिनम्) परम स्थान में स्थित (वां मनः) हे स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों का मन है (येन एव) जिससे ही (घोरं ससृजे) घोर, क्रूरकर्म भी किये जा सकते हैं, (तेन एव नः शान्तिः अस्तु) उससे ही हमें शान्ति सुख प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मऋषिः। शान्तिसूक्तम्। शान्तिर्देवता। १ विराड् उरो बृहती। ५ पञ्चपदा पथ्यापंक्तिः। ९ पञ्चपदा ककुम्मती। १२ त्र्यवसाना सप्तपदा अष्टिः। १४ चतुष्पदा संकृतिः। २, ४, ६, ८, १०, ११, १३ अनुष्टुभः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।

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