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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमरु॑त: । यस्य॑ । हि । क्षय॑ । पा॒थ । दि॒व: । वि॒ऽम॒ह॒स॒: । स: । सु॒ऽगो॒पात॑म: । जन॑: ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः। स सुगोपातमो जनः ॥
स्वर रहित पद पाठमरुत: । यस्य । हि । क्षय । पाथ । दिव: । विऽमहस: । स: । सुऽगोपातम: । जन: ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
विषय - राजा और परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ -
(सः जनः) वह पुरुष (सुगोपातम:) सबसे उत्तम रक्षक है (दिवः) तेजोमय, प्रकाशमान (विमहसः) विशेष तेजः-सम्पन्न, महान् सामर्थ्य वाले (यस्य) जिसके (क्षये) निवास गृह में या जिसकी शरण में रहकर, हे (मरुतः) समस्त शत्रुओं को मारने में समर्थ, वायुओं के समान तीव्र गति वाले सैनिक लोगों तुम (पाथ) राष्ट्र की रक्षा करते हो।
परमेश्वर के पक्ष में—हे (मरुतः) प्राणगण, हे वायुगण ! जिस परमेश्वर के आश्रय रहते हुए आप समस्त प्राणियों और लोकों की रक्षा करते हो वह (जनः) सर्वोत्पादक परमेश्वर (सुगोपातमः) सब से उत्तम पालक है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - क्रमशो विश्वामित्र गौतमविरूपा पयः। इन्द्रमरुदग्नयो देवताः। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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