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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 100/ मन्त्र 1
अधा॒ हीन्द्र॑ गिर्वण॒ उप॑ त्वा॒ कामा॑न्म॒हः स॑सृ॒ज्महे॑। उ॒देव॒ यन्त॑ उ॒दभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । हि । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: । उप॑ । त्वा॒ । कामा॑न् । म॒ह: । स॒सृ॒ज्महे॑ ॥ उ॒दाऽइ॑व । यन्त॑: । उ॒दऽभि॑: ॥१००.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा कामान्महः ससृज्महे। उदेव यन्त उदभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअध । हि । इन्द्र । गिर्वण: । उप । त्वा । कामान् । मह: । ससृज्महे ॥ उदाऽइव । यन्त: । उदऽभि: ॥१००.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 100; मन्त्र » 1
विषय - बलवान् राजा और आत्मा।
भावार्थ -
हे (इन्द्र) इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! हे (गिर्वण) स्तुतियों द्वारा भजन करने योग्य ! (अधा हि) अब (त्वा) तुझ से हम (महः) बड़े (कामान्) अभिलाषायोग्य मनोरथों को (उप स सृज्महे) प्राप्त हों ऐसे (उदा इव) जैसे जलके मार्ग से (यन्तः) जाते हुए पुरुष (उदभिः) उन जलों से ही नाना काम्य सुखों को प्राप्त करते हैं।
अर्थात् ईश्वरभक्ति के साथ ईश्वर से और नाना सुख अनायास गौण रूप से ऐसे ही प्राप्त होते हैं जैसे जल मार्ग से जाते हुए को जलों के पान स्नानादि के समस्त सुख अनायास प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - नृमेध ऋषिः। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। तृचं सूक्तम्॥
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