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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
अच्छा॒ हि त्वा॑ सहसः सूनो अङ्गिरः॒ स्रुच॒श्चर॑न्त्यध्व॒रे। ऊ॒र्जो नपा॑तं घृ॒तके॑शमीमहे॒ऽग्निं य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । हि । त्वा॒ । स॒ह॒स॒: । सू॒नो॒ इति॑ । अ॒ङ्गि॒र॒: । स्रुच॑: । चर॑न्ति । अ॒ध्व॒रे ॥ ऊ॒र्ज: । नपा॑तम् । घृ॒तऽके॑शम् । ई॒म॒हे॒ । अ॒ग्निम् । य॒ज्ञेषु॑ । पू॒र्व्यम् ॥१०३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अङ्गिरः स्रुचश्चरन्त्यध्वरे। ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । हि । त्वा । सहस: । सूनो इति । अङ्गिर: । स्रुच: । चरन्ति । अध्वरे ॥ ऊर्ज: । नपातम् । घृतऽकेशम् । ईमहे । अग्निम् । यज्ञेषु । पूर्व्यम् ॥१०३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर, विद्वान्, राजा।
भावार्थ -
हे (सहसः सूनो) बलके कारण राजसूय द्वारा अभिषेक करने योग्य, अथवा बलों के प्रेरक राजन् ! हे (अंगिरः) राष्ट्रों के अंगों मे रस या बल प्रदान करने वाले ! (अध्वरे) अहिंसित राष्ट्र में (त्वा) तुझे साक्षात् (स्रुचः) लोक (चरन्ति) प्राप्त हों। (ऊर्जः नपातम्) बल पराक्रम और अन्न को कभी नष्ट न होने देने वाले (घृतकेशम्) तेजोयुक्त किरण वाले (पूर्व्यम्) सब से अधिक पूर्ण, पालक और सबसे पूर्व सत्कार करने योग्य (अग्निम्) तुम अग्रणी को हम (यज्ञेषु) सुसंगत प्रजाजनों के बीच (ईमहे) याचना करते हैं।
परमेश्वर के पक्ष में—हे (सहसः सूनो) समस्त बलों के प्रेरक, (अङ्गिरः) अग्नि, सूर्य के समान तेजस्विन् ! (अध्वरे) यज्ञ में (स्रुचः) घृत से भरे चमसे (त्वा अच्छा चरन्ति) तुझे लक्ष्य करके चलते हैं। हम (ऊर्जः नपातम्) अन्न को नष्ट न होने देने वाले अथवा बल के अक्षय भण्डार रूप, (घृत केशम्) तेजःस्वरूप, केश या किरणों वाले, सूर्य के समान तेजस्वी (पूर्व्यम्) सबसे पूर्व विद्यमान तुझ (अग्निम्) ज्ञानवान् से हम (ईमहे) प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ सुदीतिपुरुमीढौ। २-३ भर्ग ऋषिः। अग्निर्देवता। १, २ बृहत्यौ, ३ सतो बृहती। तृचं सूक्तम्॥
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