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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
सूक्त - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-११०
त्रिक॑द्रुकेषु॒ चेत॑नं दे॒वासो॑ य॒ज्ञम॑त्नत। तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिऽक॑द्रुकेषु । चेत॑नम् । दे॒वास॑: । य॒ज्ञम् । अ॒त्न॒त॒ ॥ तम् । इत् । व॒र्धन्तु॒ । न॒: । गिर॑: ॥११०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेषु चेतनं देवासो यज्ञमत्नत। तमिद्वर्धन्तु नो गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽकद्रुकेषु । चेतनम् । देवास: । यज्ञम् । अत्नत ॥ तम् । इत् । वर्धन्तु । न: । गिर: ॥११०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
विषय - परमात्मा, आत्मा।
भावार्थ -
(त्रिकद्रुकेषु) तीनों लोकों में (देवासः) दिव्य, तेजोमय महान् शक्तियां (चेतनम्) एक चेतनस्वरूप, सबके भीतर ज्ञाता रूप से विद्यमान (यज्ञम्) सबको संगत करने वाले, परस्पर मिलाए रखने वाले, परम पूजनीय, सबको शक्ति देने वाले परमेश्वर को (अत्नत) विस्तृत करते हैं। उसी के सामर्थ्य को प्रकट करते हैं। (नः गिरः) हमारी वाणियां भी (तम् इत्) उस परमेश्वर को ही (वर्धन्तु) बढ़ाती हैं उसी का यश फैलाती हैं।
आत्मा के पक्ष में—(त्रिकद्रुकेषु) ज्योति, गौः आयु अर्थात् मन इन्द्रियगण और जीवन इन तीन रूपों में (देवासः) प्राणगण (चेतनं यज्ञम्) चेतन आत्मा को ही (अत्नत) विस्तृत करते हैं उसके ही सामर्थ्यों का विस्तार प्रकट करते हैं अथवा (देवासः) विद्वान्गण सर्वत्र उसी परमेश्वर या आत्मा के सामर्थ्यों का निरूपण करते हैं (इम् इत् नः गिरः वर्धन्तु) उसी को हमारी वाणियां भी प्रकट करती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्।
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