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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
उ॒भयं॑ शृ॒णव॑च्च न॒ इन्द्रो॑ अ॒र्वागि॒दं वचः॑। स॒त्राच्या॑ म॒घवा॒ सोम॑पीतये धि॒या शवि॑ष्ठ॒ आ ग॑मत् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भय॑म् । शृ॒ण्व॑त् । च॒ । न॒: । इन्द्र॑: । अ॒र्वाक् । इ॒दम् । वच॑: ॥ स॒त्राच्या॑ । म॒घऽवा॑ । सोम॑ऽपीतये । धि॒या । शवि॑ष्ठ: । आ । ग॒म॒त् ॥११३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उभयं शृणवच्च न इन्द्रो अर्वागिदं वचः। सत्राच्या मघवा सोमपीतये धिया शविष्ठ आ गमत् ॥
स्वर रहित पद पाठउभयम् । शृण्वत् । च । न: । इन्द्र: । अर्वाक् । इदम् । वच: ॥ सत्राच्या । मघऽवा । सोमऽपीतये । धिया । शविष्ठ: । आ । गमत् ॥११३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
विषय - राजा, सूर्य और परमेश्वर।
भावार्थ -
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा, (अर्वाक्) साक्षात् (नः) हमारे (इदं) इस (उभयम्) अपने अनुकूल और अपने प्रतिकूल दोनों प्रकार के (वचः) वचन को (शृणवत्) सुने। वह (सोमपीतये) सोमपान करने, राष्ट्र के पालन करने के लिये (मघवा) ऐश्वर्यवान् होकर (सत्राच्या धिया) विवेकपूर्वक सत्य मात्र के ग्रहण करने वाली बुद्धि से (शविष्ठः) अति बलवान् होकर (आ गमत्) प्राप्त हो।
ईश्वर के पक्ष में—इन्द्र परमेश्वर हमारे वैदिक और लौकिक, ऐहिक और पारमार्थिक दोनों प्रकार के वचन सुने, वह सदा विद्यमान धारणशक्ति से युक्त सर्व शक्तिमान् होकर हमें आनन्दरस प्राप्त कराने के लिये प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भर्ग ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथः। द्व्यचं सूक्तम्॥
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