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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
अस्ता॑वि॒ मन्म॑ पू॒र्व्यं ब्रह्मेन्द्रा॑य वोचत। पू॒र्वीरृ॒तस्य॑ बृह॒तीर॑नूषत स्तो॒तुर्मे॒धा अ॑सृक्षत ॥
स्वर सहित पद पाठअस्ता॑वि । मन्म॑ । पू॒र्व्यम् । ब्रह्म॑ । इन्द्रा॑य । वो॒च॒त॒ ॥ पू॒र्वी: । ऋ॒तस्य॑ । बृ॒ह॒ती: । अ॒नू॒ष॒त॒ । स्तो॒तु: । मे॒धा: । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ ॥११९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्तावि मन्म पूर्व्यं ब्रह्मेन्द्राय वोचत। पूर्वीरृतस्य बृहतीरनूषत स्तोतुर्मेधा असृक्षत ॥
स्वर रहित पद पाठअस्तावि । मन्म । पूर्व्यम् । ब्रह्म । इन्द्राय । वोचत ॥ पूर्वी: । ऋतस्य । बृहती: । अनूषत । स्तोतु: । मेधा: । असृक्षत ॥११९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 119; मन्त्र » 1
विषय - ईश्वर।
भावार्थ -
(पूर्व्यंम्) सबसे पूर्व विद्यमान (मन्म) मनन करने योग्य ज्ञान को (अस्तावि) वर्णन किया जाता है। वही (ब्रह्म) महान् ज्ञान हे विद्वान् पुरुषो ! (इन्द्राय) परमेश्वर के निरूपण करने के लिये (वो चत) उच्चारण करो। (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, वेद के ज्ञान से (पूर्वीः) पूर्ण (बृहतीः) वाणियों को (अनूषत्) स्तुतिरूप से कहो। और (स्तोतुः) यथार्थ वचन कहने वाले पुरुष की (मेधाः) उत्तम बुद्धियां आप से आप (असृक्षत) उत्पन्न होती हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १. आयुः श्रुष्टिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभौ। द्व्यृचं सूक्तम्॥
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