अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
आप॑श्चित्पिप्यु स्त॒र्यो॒ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्त इन्द्र। या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छा॒ त्वं हि धी॒भिर्दय॑से॒ वि वाजा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । चि॒त् । पि॒प्यु॒: । स्त॒र्य॑: । न । गाव॑: । नक्ष॑न् । ऋ॒तम् । ज॒रि॒तार॑: । ते॒ । इ॒न्द्र॒ ॥ या॒हि । वा॒यु: । न । नि॒ऽयुत॑: । न॒: । अच्छ॑ । त्वम् । हि । धी॒भि: । दय॑से । वि । वाजा॑न् ॥१२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
आपश्चित्पिप्यु स्तर्यो न गावो नक्षन्नृतं जरितारस्त इन्द्र। याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छा त्वं हि धीभिर्दयसे वि वाजान् ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । चित् । पिप्यु: । स्तर्य: । न । गाव: । नक्षन् । ऋतम् । जरितार: । ते । इन्द्र ॥ याहि । वायु: । न । निऽयुत: । न: । अच्छ । त्वम् । हि । धीभि: । दयसे । वि । वाजान् ॥१२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
विषय - परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ -
(चित् न) जिस प्रकार (स्तर्यः) विस्तृत पृथिवियें या गौवें (आपः) जलों को प्राप्त होकर (पिप्युः) वृद्धि को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार हे (इन्द्र) इन्द्र ! परमेश्वर ! (गावः) वेद वाणियें (आपः चित्) प्राप्तव्य तुझको प्राप्त होती हैं। और (जरितारः) स्तुति करने वाले उपासक जन (ते) तेर (ऋतम्) सत्य ज्ञान और स्वरूप को (नक्षन्) प्राप्त होते हैं। (वायुः न) वायु जिस प्रकार (नियुतः) समस्त वेगों को प्राप्त है उसी प्रकार तू भी (नियुतः) समस्त बलों को (याहि) प्राप्त है। (त्वे हि) तु ही निश्चय से (धीभिः) अपने धारण बलों, कर्मों और ज्ञानों से (नः) हमें (वाजान्) अन्नों और बलों को (अच्छा वि दयसे) भली प्रकार विविध रूपों में प्रदान करता है अथवा (धीभिः) ध्यान स्तुतियों से संतुष्ट होकर (नः दयसे) हमारी रक्षा करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-६ वसिष्ठः। ७ अत्रिर्ऋषिः। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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