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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२
    38

    आप॑श्चित्पिप्यु स्त॒र्यो॒ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्त इन्द्र। या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छा॒ त्वं हि धी॒भिर्दय॑से॒ वि वाजा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । चि॒त् । पि॒प्यु॒: । स्त॒र्य॑: । न । गाव॑: । नक्ष॑न् । ऋ॒तम् । ज॒रि॒तार॑: । ते॒ । इ॒न्द्र॒ ॥ या॒ह‍ि । वा॒यु: । न । नि॒ऽयुत॑: । न॒: । अच्छ॑ । त्वम् । हि । धी॒भि: । दय॑से । वि । वाजा॑न् ॥१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपश्चित्पिप्यु स्तर्यो न गावो नक्षन्नृतं जरितारस्त इन्द्र। याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छा त्वं हि धीभिर्दयसे वि वाजान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । चित् । पिप्यु: । स्तर्य: । न । गाव: । नक्षन् । ऋतम् । जरितार: । ते । इन्द्र ॥ याह‍ि । वायु: । न । निऽयुत: । न: । अच्छ । त्वम् । हि । धीभि: । दयसे । वि । वाजान् ॥१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी सेनापति] (स्तर्यः) फैले हुए (आपः चित्) जलों के समान और (गावः न) किरणों के समान (ते) तेरे (जरितारः) स्तुति करनेवाले (पिप्युः) बढ़े हैं, और (ऋतम्) सत्य को (नक्षन्) प्राप्त हुए हैं। (वायुः न) पवन के समान (नियुतः) वेग आदि गुणों को, (त्वम्) तू (अच्छ) अच्छे प्रकार से (नः) हमें (याहि) प्राप्त हो, (हि) क्योंकि (धीभिः) अपनी बुद्धियों वा कर्मों से (वाजान्) विज्ञानियों पर (वि) विविध प्रकार (दयसे) तू दया करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष फैलते हुए जल और किरणों के समान बढ़कर उपकारी होवें, महासेनापति वायु के समान शीघ्रता करके उन उपकारी सज्जनों को सन्तुष्ट करे ॥४॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।१८ ॥ ४−(आपः) जलानि (चित्) उपमार्थे-निरु० १।४। (पिप्युः) ओप्यायी वृद्धौ-लिट्। अभिवृद्धा बभूवुः (स्तर्यः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। स्तृञ् आच्छादने-ईप्रत्ययः। विस्तारशीलाः (न) इव-निरु० १।४। (गावः) किरणाः (नक्षन्) णक्ष गतौ-लङ्, अडभावः। प्राप्तवन्तः (ऋतम्) सत्यम् (जरितारः) स्तोतारः (ते) तव (इन्द्रः) महाप्रतापिन् सेनापते (याहि) प्राप्नुहि (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) नि+यु मिश्रणामिश्रणयोः-क्विप्। नियुतो वायोरादिष्टोपयोजनानि-निघ० १।१। वेगादिगुणान् (नः) अस्मान् (अच्छ) सुष्ठु (त्वम्) (हि) यतः (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (दयसे) दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु। दयां करोषि (वि) विविधम्, (वाजान्) विज्ञानवतः ॥

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    विषय

    धीभिः वाजान् [बुद्धि के साथ शक्ति]

    पदार्थ

    १. (आप:) = रेत:कण [आप: रेतो भूत्वा०] (चित्) = निश्चय से (पिप्यु:) = हमारे शरीरों में अभिवृद्ध होते हैं, परिणामत: (गाव:) = इन्द्रियों (स्तर्य: न) = अब बन्ध्या [Sterile] नहीं हैं। इन रेत:कणों के रक्षण से वे अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हुई हैं। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ते जरितार:) = आपके स्तोता (ऋतं नक्षन्) = ऋत को-सत्यफलवाले यज्ञ को व सत्य वेदज्ञान को प्राप्त होते हैं। प्रभु का स्तोता यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होता है तथा अपने ज्ञान को बढ़ानेवाला होता है। २. जिस प्रकार (वायुः) = गतिशील जीव नियुत: अपने इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करता है, उसी प्रकार आप (नः अच्छा याहि) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होइए। (जितना)-जितना जीव इन्द्रियाश्वों को अपने समीप करता है, अर्थात् जितना-जितना उन्हें वश में करता है, उतना-उतना प्रभु के समीप हो पाता है। हे प्रभो! (त्वं हि) = आप ही (धीभि:) = बुद्धियों के साथ (वाजान्) = शक्तियों को (विदयसे) = देते है [प्रयच्छसि सा०]।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण से इन्द्रियों सशक्त बनती हैं। प्रभु के स्तोता ऋत को प्राप्त करते हैं यज्ञों को ब वेदज्ञान को प्राप्त करते हैं। जितना-जितना हम इन्द्रियों को वश में करते हैं, उतना उतना ही प्रभु को प्राप्त करते हैं। प्रभु हमें बुद्धि के साथ शक्तियों देते हैं।

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    भाषार्थ

    तदनन्तर (आपः चित्) उपासक की प्राणशक्तियाँ भी (पिप्युः) आप्यायित हो जाती हैं, (न) जैसे कि (स्तर्यः) बांझ (गावः) गौएँ खा-खाकर, आप्यायित हो जाती हैं। तब (इन्द्र) हे परमेश्वर! (ते) आपके (जरितारः) स्तोता (ऋतम्) सत्यमार्ग को (नक्षन्) प्राप्त होते हैं। हे परमेश्वर! (त्वम्) आप (धीभिः) अपने कर्मों द्वारा (वाजान्) बलों का (वि दयसे) प्रदान करते हैं। (नः) हम (नियुतः) हजारों उपासकों के (अच्छ) सम्मुख (आ याहि) आप आइए। (न) जैसे कि (वायुः) अन्तरिक्षस्थ वायु हजारों प्राणियों को प्राप्त हो रही है।

    टिप्पणी

    [आपः=सप्त प्राण=५ ज्ञानेन्द्रियाँ, १ मन, १ बुद्धि। यथा—“सप्तापः स्वपतो लोकमीयुः” (यजुः০ ३४.५५) पर “सप्त आपनानि षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी” (निरु০ १२.४.३७)। धीभीः, धीः=कर्म (निघं০ २.१)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, lord of light and action, just as waters flow and rays of light radiate over darkness, so let your celebrants, men of holy action, rise and attain to the light of truth. O lord of the cosmic chariot, come like the wind to your servants of action with grace since you bless us with mercy and with gifts of intelligence, vision and the light of divinity.

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    Translation

    O God Almighty, like the expanding waters like the sunbeams your devotees expand in prosperity and attain the ultimate truth (i,e. the law enteral) O Lord, you like the air possess all the impelling powers and you bestow upon us all the wealth accompanied with wisdom.

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    Translation

    O God Almighty, like the expanding waters, like the sun- beams your devotees expand in prosperity and attain the ultimate truth (i.e., the law eternal) O Lard, you like the air possess all the impelling powers and you bestow upon us all the wealth accompanied with wisdom.

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    Translation

    Just as the vast earths, the cows and the rays prosper and progress by coming in contact with waters, so do the Ved-mantras and worshippers’ prosper. O mighty God, approaching Thee, the Peace-showerer and Thy true knowledge. Just air attains all sorts of speed and power, so dost Thou move with all forces of action and movement. Truly dost Thou invest us with all kinds of food, power, knowledge and wealth by Thy wisdom and power of action.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।१८ ॥ ४−(आपः) जलानि (चित्) उपमार्थे-निरु० १।४। (पिप्युः) ओप्यायी वृद्धौ-लिट्। अभिवृद्धा बभूवुः (स्तर्यः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ० ३।१८। स्तृञ् आच्छादने-ईप्रत्ययः। विस्तारशीलाः (न) इव-निरु० १।४। (गावः) किरणाः (नक्षन्) णक्ष गतौ-लङ्, अडभावः। प्राप्तवन्तः (ऋतम्) सत्यम् (जरितारः) स्तोतारः (ते) तव (इन्द्रः) महाप्रतापिन् सेनापते (याहि) प्राप्नुहि (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) नि+यु मिश्रणामिश्रणयोः-क्विप्। नियुतो वायोरादिष्टोपयोजनानि-निघ० १।१। वेगादिगुणान् (नः) अस्मान् (अच्छ) सुष्ठु (त्वम्) (हि) यतः (धीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (दयसे) दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु। दयां करोषि (वि) विविधम्, (वाजान्) विज्ञानवतः ॥

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