अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 2
अया॑मि॒ घोष॑ इन्द्र दे॒वजा॑मिरिर॒ज्यन्त॒ यच्छु॒रुधो॒ विवा॑चि। न॒हि स्वमायु॑श्चिकि॒ते जने॑षु॒ तानीदंहां॒स्यति॑ पर्ष्य॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठअया॑मि । घोष॑: । इ॒न्द्र॒ । दे॒वऽजा॑भि: । इ॒र॒ज्यन्त॑ । यत् । शु॒रुध॑: । विऽवा॑चि ॥ न॒हि । स्वम् । आयु॑: । चि॒कि॒ते । जने॑षु । तानि॑ । इत् । अंहा॑सि । अति॑ । प॒र्षि॒ । अ॒स्मान् ॥१२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयामि घोष इन्द्र देवजामिरिरज्यन्त यच्छुरुधो विवाचि। नहि स्वमायुश्चिकिते जनेषु तानीदंहांस्यति पर्ष्यस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठअयामि । घोष: । इन्द्र । देवऽजाभि: । इरज्यन्त । यत् । शुरुध: । विऽवाचि ॥ नहि । स्वम् । आयु: । चिकिते । जनेषु । तानि । इत् । अंहासि । अति । पर्षि । अस्मान् ॥१२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी वीर] (देवजामिः) विद्वानों को प्राप्त होनेवाला (घोषः) शब्द (अयामि) ऊँचा किया गया है, (यत्) जिस [शब्द] को (शुरुधः) शीघ्र रोकनेवाले पुरुष (विवाचि) विविध वाणियों से युक्त व्यवहार [वा संग्राम] में (इरज्यन्त) सेवते हैं। (स्वम्) अपने (आयुः) जीवनकाल को (जनेषु) मनुष्यों में (नहि) किसी ने नहीं (चिकिते) जाना है, (तानि) उन (अंहासि) पापों को (इत्) ही (अति) लाँघकर (अस्मान्) हमें (पर्षि) पाल ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य वेदवचनों को भली-भाँति मानता हुआ और मृत्यु को सदा अपने पास जानता हुआ पापों को छोड़ धर्म करने में शीघ्रता करता रहे ॥२॥
टिप्पणी
२−(अयामि) यमु उपरमे कर्मणि लुङ्। उद्यतः। उच्चैर्गतः (घोषः) शब्दः (इन्द्रः) हे महाप्रतापिन् वीर (देवजामिः) वसिवपियजि०। उ० ४।१२। जमु अदने गतौ च-इञ्। जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। यो देवान् विदुषः पुरुषान् जमति प्राप्नोति सः (इरज्यन्त) लटि रूपम्। इरज्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। इरज्यन्ति। सेवन्ते (यत्) यं घोषम् (शुरुधः) शु गतौ-डु+रुधिर् आवरणे-क्विप्। शवतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४, परिचरणकर्मा-निघ० ३।। आशु इति च शु इति च क्षिप्रनामनी भवतः-निरु० ६।१। शीघ्ररोधनशीलाः (विवाचि) विवाक् संग्रामनाम-निघ० २।१७। विविधवाणीयुक्तं व्यवहारे संग्रामे वा (नहि) न कोऽपि (स्वम्) स्वकीयम् (आयुः) जीवनकालम् (चिकिते) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवान् (जनेषु) मनुष्येषु (तानि) प्रसिद्धानि (इत्) एव (अंहांसि) पापानि (अति) अतीत्य उल्लङ्घ्य (पर्षि) पॄ पालनपूरणयोः-लेट्। पालय (अस्मान्) ॥
विषय
देवजामिः घोषः
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (यत्) = जब (देवजामि:) = दिव्य गुण हैं बन्धु जिसके, अर्थात् जो दिव्यगुणों को जन्म देनेवाला है, वह (घोषः) = स्तोत्र-स्तुतिवचन (अयामि) = [अकारि] हमसे नियमितरूप से किया गया है तब इस (विवाचि) = विशिष्ट स्तुति-बाणीवाले यजमान में (शुरुधः) = [शुचं रुन्धन्ति] शोक-निवर्तक व स्वर्गफलक तत्व (इरज्यन्त) = परस्पर स्पर्धावाले होते हैं। एक-से-एक बढ़कर ये तत्त्व उसके शोक को रोकते हैं और सुख को बढ़ाते हैं। २. हे प्रभो! (जनेषु) = लोगों में (स्वमायुः) = अपनी आयु (नहि चिकिते) = नहीं जानी जाती। पता नहीं कब अन्त आ जाए, अत: आप शीघ्र ही (अस्मान्) = हमें (तानि अंहांसि) = उन आयुष्य की अल्पता के कारणभूत पापों से (इत्) = निश्चयपूर्वक (अतिपर्षि) = लंघाकर पालित कीजिए।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन दिव्यगुणों का वर्धक है। हम नियम से प्रभु-स्तवन करनेवाले बनें। यह स्तवन शोकरोधक तत्त्वों को बढ़ाएगा और प्रभु हमें पापों से पार ले-जाएँगे।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (घोषे) आर्तनादों के उठने पर, (यद्) जब मैं (देवजामिः) आप-देव का बन्धु (अयामि) आपकी शरण में आता हूँ, तब (विवाचि) मेरी मौनावस्था में (शुरुधः) शोक-सन्ताप को रोकने-वाली मेरी चित्तवृत्तियाँ (इरज्यन्त) आपकी परिचर्या में लग जाती हैं। (स्वमायुः) अपना अन्तर्नाद करनेवाला (नहि चिकिते) नहीं जानता कि (जनेषु) सर्वसाधारण जनों में (तानि इत्) वे प्रसिद्ध (अंहांसि) पाप विद्यमान रहते हैं। हे परमेश्वर! (अस्मान्) हम उपासकों को आप (अति पर्षि) भवसागर से पार कीजिए।
टिप्पणी
[इरज्यति=परिचरणकर्मा (निघं০ ३.५)। शुरुधः=शुचं संरुधन्ति (निरु০ ६.३.१५)। मायुम्=शब्दम् (निरु০ २.३.९)।]
विषय
परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्र ! परमेश्वर ! (देवजाभिः) समस्त विद्वान् देवों, दानशीला और दिव्य शक्ति, वायु, जल, अग्नि आदि पदार्थों का (घोषः) घोष, निवास स्थान के समान ही तू (अयामि) सबको बांध रहा है। (विवाचि) विविध वाणियों से स्तुति करने योग्य (यत्) जिस तुझ में (शुरुधः) शीघ्र गतिशील प्राणों को रोकने हारे यही तपस्वी जितेन्द्रिय लोग (इरज्यन्त) बड़ी स्पर्द्धा से सेवा में लग्न हो जाते हैं। (जनेषु) इन उत्पन्न पुरुषों में से कोई भी पुरुष (स्वम् आयुः) अपने आयु को (नहि चिकिते) नहीं जानता कि कब वह मौत के मुंह में चला जाय, तो भी हे परमेश्वर ! तू (अस्मान्) हमें (तानि अंहांसि इत्) उन नाना प्रकार के पापों से भी (अति पर्षि) पार कर देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ वसिष्ठः। ७ अत्रिर्ऋषिः। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
I come, lord Indra, the sound of prayer rises like a battle cry with the divine waves of nature, charming, mastering, the notes resounding in the tumultuous roar. No one knows the thread of his span of life in humanity. O lord, cleanse us of those sins which pollute us to darkness.
Translation
O Almighty God, the (Vedie speech which contains in it all Devas, the physical and supra-physical forces (as Subjectmatter, is encompassing all the things in its purviews. In that of you who is adored in various speach and voices, the men of sharp and quick understanding do their all the performances None of all these born men knows the duration of his life. You always bear us in safety over all these troubles
Translation
O Almighty God, the (Vedic speech which contains in it all Devas, the physical and supra-physical forces (as Subject matter, is encompassing all the things in its purviews. In that of you who is adored in various speech and voices, the men of sharp and quick understanding do their all the performances None of all these born men knows the duration of his life. You always bear us in safety over all these troubles.
Translation
O mighty Lord, this loud cry, friendly to the brave warriors, or the learned people, is raised and highly enhanced by those who speedily check the onslaught of the enemy in the battlefield, wherein all sorts of voices are heard. None among the people knows the duration of his life. It is Thou, Who enables us to overcome all evils, to avoid cutting short of our life.
Footnote
The verse may be interpreted as below: O Electricity, this high sound accompanied by friendly natural forces, is raised. The aerials speedily checking it, amplify it in the sets, producing sounds of various sorts. None among the people know the duration of the sound-wave. It is thou (i.e., electricity) which enablest the sound-waves to cross all hurdles in the way
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अयामि) यमु उपरमे कर्मणि लुङ्। उद्यतः। उच्चैर्गतः (घोषः) शब्दः (इन्द्रः) हे महाप्रतापिन् वीर (देवजामिः) वसिवपियजि०। उ० ४।१२। जमु अदने गतौ च-इञ्। जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। यो देवान् विदुषः पुरुषान् जमति प्राप्नोति सः (इरज्यन्त) लटि रूपम्। इरज्यतिः परिचरणकर्मा-निघ० ३।। इरज्यन्ति। सेवन्ते (यत्) यं घोषम् (शुरुधः) शु गतौ-डु+रुधिर् आवरणे-क्विप्। शवतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४, परिचरणकर्मा-निघ० ३।। आशु इति च शु इति च क्षिप्रनामनी भवतः-निरु० ६।१। शीघ्ररोधनशीलाः (विवाचि) विवाक् संग्रामनाम-निघ० २।१७। विविधवाणीयुक्तं व्यवहारे संग्रामे वा (नहि) न कोऽपि (स्वम्) स्वकीयम् (आयुः) जीवनकालम् (चिकिते) कित ज्ञाने-लिट्। ज्ञातवान् (जनेषु) मनुष्येषु (तानि) प्रसिद्धानि (इत्) एव (अंहांसि) पापानि (अति) अतीत्य उल्लङ्घ्य (पर्षि) पॄ पालनपूरणयोः-लेट्। पालय (अस्मान्) ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সেনাপতিকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র ! [মহাপ্রতাপী বীর] (দেবজামিঃ) বিদ্বানদের প্রাপ্ত (ঘোষঃ) শব্দ (অয়ামি) উচ্চ করা হয়েছে, (যৎ) যে [শব্দকে] (শুরুধঃ) শীঘ্র রোধকারী পুরুষ (বিবাচি) বিবিধ বাণীযুক্ত ব্যবহারে [বা সংগ্রামে] (ইরজ্যন্ত) সেবা করে। (স্বম্) নিজের (আয়ুঃ) জীবনকালকে (জনেষু) মনুষ্য মধ্যে (নহি) কেউ না (চিকিতে) জ্ঞাত হয়েছে, (তানি) সেই (অংহাসি) পাপকে (ইৎ) ই (অতি) অতিক্রম করে (অস্মান্) আমাদের (পর্ষি) পালন করো॥২॥
भावार्थ
মনুষ্য বেদবচনসমূহ ভালোভাবে মান্য করে এবং মৃত্যুকে সদা নিজের নিকটে জেনে পাপকর্ম ত্যাগ করে ধর্ম করার জন্য শীঘ্রতা করতে থাকুক ॥২॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ঘোষে) আর্তনাদ উত্থিত হলে, (যদ্) যখন আমি (দেবজামিঃ) দেবতার[আপনার] বন্ধু (অয়ামি) আপনার শরণে আসি, তখন (বিবাচি) আমার মৌনাবস্থায় (শুরুধঃ) শোক-সন্তাপ প্রতিরোধী আমার চিত্তবৃত্তি-সমূহ (ইরজ্যন্ত) আপনার পরিচর্যায় নিয়োজিত হয়। (স্বমায়ুঃ) নিজের অন্তর্নাদকারী (নহি চিকিতে) না জানে (জনেষু) সর্বসাধারণের মধ্যে (তানি ইৎ) সেই প্রসিদ্ধ (অংহাংসি) পাপ বিদ্যমান থাকে। হে পরমেশ্বর! (অস্মান্) আমাদের [উপাসকদের] আপনি (অতি পর্ষি) ভবসাগর থেকে পার/উদ্ধার করুন।
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