अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
यु॒जे रथं॑ ग॒वेष॑णं॒ हरि॑भ्या॒मुप॒ ब्रह्मा॑णि जुजुषा॒णम॑स्थुः। वि बा॑धिष्ट॒ स्य रोद॑सी महि॒त्वेन्द्रो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ती ज॑घ॒न्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒जे । रथ॑म् । गो॒ऽएष॑णम् । हरिऽभ्याम् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । जु॒जु॒षा॒णम् । अ॒स्थु॒: ॥ वि । बाधि॒ष्ट॒ । स्य:। रोदसी॑ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । इन्द्र॑: । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒ति । ज॒घ॒न्वान् ॥१२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
युजे रथं गवेषणं हरिभ्यामुप ब्रह्माणि जुजुषाणमस्थुः। वि बाधिष्ट स्य रोदसी महित्वेन्द्रो वृत्राण्यप्रती जघन्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठयुजे । रथम् । गोऽएषणम् । हरिऽभ्याम् । उप । ब्रह्माणि । जुजुषाणम् । अस्थु: ॥ वि । बाधिष्ट । स्य:। रोदसी इति । महिऽत्वा । इन्द्र: । वृत्राणि । अप्रति । जघन्वान् ॥१२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(गवेषणम्) भूमि प्राप्त करानेहारे (रथम्) रथ को (हरिभ्याम्) दो घोड़ों से (युजे=युयुजे) उस [सेनापति] ने जोता, (जुजुषाणम्) उस हर्ष करते हुए को (ब्रह्माणि) अनेक धन (उप अस्थुः) उपस्थित हुए। (स्यः) उस (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] ने (वृत्राणि) शत्रुदलों को (अप्रति) बिना रोक (जघन्वान्) मार डालकर (महित्वा) अपने महत्त्व से (रोदसी) दोनों आकाश और भूमि को (वि) विविध प्रकार (बाधिष्ट) बिलोया [मथा] है ॥३॥
भावार्थ
जो राजा दो घोड़ों के समान वर्तमान शत्रु के नाश और प्रजा के पालनरूप गुणों से राज्य को चलाता है, वह निर्विघ्न होकर भूमि और आकाश के पदार्थों से उपकार लेता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(युजे) युजिर् योगे-लिट्। स युयुजे। योजितवान् (रथम्) यानम् (गवेषणम्) गां भूमिं प्रापकम् (हरिभ्याम्) शत्रुनाशनप्रजापालनरूपाभ्यां तुरङ्गाभ्याम्, (उप अस्थुः) उपतिष्ठन्ते सेवन्ते स्म (ब्रह्माणि) धनानि (जुजुषाणम्) जुष तर्के, जुषी प्रीतिसेवनयोः-कानच्। हृष्यन्तं सेनापतिम् (वि) विविधम् (बाधिष्ट) अबाधिष्ट। विलोडितवान् (स्यः) सः (रोदसी) आकाशभूमी (महित्वा) महत्त्वेन (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः (वृत्राणि) शत्रुसैन्यानि (अप्रति) यथा भवति तथा। प्रातिकूल्यस्य विघ्नस्य राहित्येन (जघन्वान्) हन हिंसागत्योः-क्वसु। नाशितवान् ॥
विषय
गवेषणं रथम्
पदार्थ
१. मैं गवेषणम्-ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करानेवाले रथम्-इस शरीर-रथ को हरिभ्याम् इन्द्रियाश्वों से युजे-युक्त करता हूँ। इन्द्रियों को विषयों में भटकने से रोककर मैं उन्हें संयत करता हूँ। ये संयत इन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि का साधन बनती हैं। (जुजुषाणमस्थुः) = सबसे सेव्यमान उस प्रभु को (ब्रह्माणि) = मेरे द्वारा उच्चरित स्तोत्र (उपस्थुः) = उपस्थित होते हैं। मैं स्तोत्रों द्वारा प्रभु का उपासन करता हूँ। (स्यः इन्द्रः) = वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (विबाधिष्ट) = आक्रान्त करते हुए अपने-अपने स्थान में थामते [रोकते] हैं। सारे संसार को वे प्रभु नियन्त्रित करते हैं और (वृत्राणि) = ज्ञान को आवृत करनेवाले काम आदि शत्रुओं को (अप्रती जघन्वान्) = [न विद्यते पुनः प्राप्तिः प्रतिगति यस्मिन्] इसप्रकार नष्ट करते हैं कि वे फिर लौट ही न सकें। चेतन जगत् में भी उपासकों के शत्रुओं का नाश प्रभु ही करते हैं।
भावार्थ
मैं इन्द्रियों को संयत करके ज्ञान-प्रासि में लगाता हूँ, प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करता हूँ। प्रभु ही धुलोक व पृथिवीलोक को थामते हैं और उपासकों के वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं।
भाषार्थ
(गवेषणम्) प्रभु की गवेषणा अर्थात् खोज करनेवाले (रथम्) मनोरथों को=मानसिक अभिलाषाओं को (हरिभ्याम्) कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियरूपी अश्वों, समेत, (युजे) जब मैं परमेश्वर के साथ योगयुक्त करता हूँ, तब (ब्रह्माणि) ब्रह्मस्तावक मेरे स्तुतिजाप, (जुजुषाणम्) उनका प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले परमेश्वर का (उप अस्थुः) उपस्थान करते हैं, उसके समीप उपस्थित हो जाते हैं। (स्यः) वह ही (इन्द्रः) परमेश्वर (महित्वा) निज महिमा द्वारा (रोदसी) भूलोक और द्युलोक का (वि बाधिष्ट) प्रलयकाल में विनाश कर देता है। वह ही (वृत्राणि) पाप-वृत्रों का (अप्रती=अप्रतीनि) विना विरोध के (जघन्वान्) हनन कर देता है।
विषय
परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ
मैं, साधक पुरुष (हरिभ्याम्) हरणशील, गतिमान् लक्ष्य तक पहुंचाने वाले अश्वों के समान दोनों प्राण और अपान द्वारा अपने (गवेषण स्थम्) गौ, इन्द्रियों को प्ररेण करने में समर्थ रमण करने वाले रसरूप आत्मा को (युजे) योग समाधि द्वारा समाहित करता हूं। उसी (ब्रह्माणि जुजुषाणम्) समस्त वेदमन्त्रों को स्वयं मुख्य तात्पर्य रूप से एवं समस्त महान् बलों को स्वयं ग्रहण करते हुए परमेश्वर को सभी विद्वान् पुरुष (उप अस्थुः) उपासना करते हैं। (स्वः) वही (इन्द्रः) परमेश्वर (वृत्राणि) आवरणकारी अज्ञानों को (अप्रति) सदा के लिये (जघन्वान्) विनाश कर देने हारा है और वही (महित्वा) अपने महान सामर्थ्य से (रोदसी) आकाश और पृथिवी दोनों को (विबाधिष्ट) विविध रूपों से थामे हुए है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-६ वसिष्ठः। ७ अत्रिर्ऋषिः। त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
I ride the chariot of worship in pursuit of the light of truth, harnessing the two carriers of mind and intellect alongwith the senses. My prayers reach the lord of love who accepts the supplicant with grace. The lord pervades both heaven and earth with his might, prevents evil, and destroys the demons of sin and darkness which we cannot even perceive with our human eyes of ordinary vision.
Translation
Almighty Divinity harnesses this splendid globe binding sun with powers of support and gravitatiou. The learned men attain Him who accepts the prayers of the devotees. He when tears as under the resistless clouds (to rain) straing the earth and heaven.
Translation
Almighty Divinity harnesses this splendid globe binding sun with powers of support and gravitation. The learned men attain Him who accepts the prayers of the devotees. He when tears asunder the resistless clouds (to rain) straing the earth and heaven.
Translation
I (a devotee) unite my soul in deep meditation, with all the sense-organs fully engrossed, being impelled by Pran and Apan, the two powerful horses All the people worship the most Powerful Lord of the Vedas. The self-same mighty God, dispelling all forces of ignorance and darkness, upholds the earth and the heavens in a befitting manner.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(युजे) युजिर् योगे-लिट्। स युयुजे। योजितवान् (रथम्) यानम् (गवेषणम्) गां भूमिं प्रापकम् (हरिभ्याम्) शत्रुनाशनप्रजापालनरूपाभ्यां तुरङ्गाभ्याम्, (उप अस्थुः) उपतिष्ठन्ते सेवन्ते स्म (ब्रह्माणि) धनानि (जुजुषाणम्) जुष तर्के, जुषी प्रीतिसेवनयोः-कानच्। हृष्यन्तं सेनापतिम् (वि) विविधम् (बाधिष्ट) अबाधिष्ट। विलोडितवान् (स्यः) सः (रोदसी) आकाशभूमी (महित्वा) महत्त्वेन (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः (वृत्राणि) शत्रुसैन्यानि (अप्रति) यथा भवति तथा। प्रातिकूल्यस्य विघ्नस्य राहित्येन (जघन्वान्) हन हिंसागत्योः-क्वसु। नाशितवान् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সেনাপতিকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(গবেষণম্) ভূপ্রদায়ী (রথম্) রথকে (হরিভ্যাম্) দুই ঘোড়ার সাথে (যুক্ত করে =যুয়ুজে) সেই [সেনাপতি] যুক্ত/সংযুক্ত করেছেন, (জুজুষাণম্) সেই হর্ষকারীর প্রতি (ব্রহ্মাণি) অনেক ধন (উপ অস্থুঃ) উপস্থিত হয়েছে। (স্যঃ) সেই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী সেনাপতি] (বৃত্রাণি) শত্রুদলকে (অপ্রতি) বিনা প্রতিরোধে (জঘন্বান্) বিনাশ করে (মহিত্বা) নিজের মহত্ত্ব দ্বারা (রোদসী) আকাশ ও ভূমিকে (বি) বিবিধ প্রকারে (বাধিষ্ট) বিলোড়িত [মন্থন] করেছে ॥৩॥
भावार्थ
যে রাজা দুই ঘোড়ার ন্যায় বর্তমান শত্রুদের নাশ এবং প্রজাপালনরূপ গুণ দ্বারা রাজ্য পরিচালনা করেন, সে নির্বিঘ্ন হয়ে ভূমি ও আকাশের পদার্থ থেকে উপকার গ্রহণ করে ॥৩॥
भाषार्थ
(গবেষণম্) প্রভুর গবেষণা অর্থাৎ অন্বেষণকারী (রথম্) মনোরথকে=মানসিক অভিলাষাকে (হরিভ্যাম্) কর্মেন্দ্রিয় এবং জ্ঞানেন্দ্রিয়রূপী অশ্ব, সমেত, (যুজে) যখন আমি পরমেশ্বরের সাথে যোগযুক্ত করি, তখন (ব্রহ্মাণি) ব্রহ্মস্তাবক আমার স্তুতিজপ, (জুজুষাণম্) সেগুলোর প্রীতিপূর্বক সেবনকারী পরমেশ্বরের (উপ অস্থুঃ) উপস্থান করে, উনার সমীপে উপস্থিত হয়। (স্যঃ) সেই (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (মহিত্বা) নিজ মহিমা দ্বারা (রোদসী) ভূলোক এবং দ্যুলোকের (বি বাধিষ্ট) প্রলয়কালে বিনাশ করেন। তিনিই (বৃত্রাণি) পাপ-বৃত্র-সমূহের (অপ্রতী=অপ্রতীনি) বিনা বিরোধেই (জঘন্বান্) হনন করেন।
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