अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 124/ मन्त्र 2
कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मंहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः। दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठक: । त्वा॒ । स॒त्य: । मदा॑नाम् । मंहि॑ष्ठ: । म॒त्स॒त् । अन्ध॑स: ॥ दृ॒ह्ला । चि॒त् । आ॒ऽरुजे॑ । वसु॑ ॥१२४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः। दृढा चिदारुजे वसु ॥
स्वर रहित पद पाठक: । त्वा । सत्य: । मदानाम् । मंहिष्ठ: । मत्सत् । अन्धस: ॥ दृह्ला । चित् । आऽरुजे । वसु ॥१२४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 124; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर, राजा और आत्मा।
भावार्थ -
(अन्धसः) ऐश्वर्य के (मदानां) आनन्दप्रद हर्षो में से (कः) कौनसा (सत्यः) सत्य, सज्जनों को हितकर हर्ष (त्वा) तुझको (मत्सत्) प्रसन्न, तृप्त करे जिससे तू (दृल्हा) दृढ़ से दृढ़ (वसु) ऐश्वर्यों को (आरुजे) अति रोग के समान भयंकर शत्रु या पीड़ाजनक कष्टों के लिये वारदे। अथवा—(दृढ़ा चित् वसु) दृढ़ से दृढ़ शरीर रूप निवास स्थानों को (आरुजे) तोड़ने में समर्थ हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः ३ पादनिचृत्। षडृचं सूक्तम्।
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