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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 138

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 138/ मन्त्र 2
    सूक्त - वत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त १३८

    प्र॒जामृ॒तस्य॒ पिप्र॑तः॒ प्र यद्भर॑न्त॒ वह्न॑यः। विप्रा॑ ऋ॒तस्य॒ वाह॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजाम् । ऋ॒तस्य॑ । पिप्र॑त: । प्र । यत् । भर॑न्त । वह्न॑य: ॥ विप्रा॑: । ऋ॒तस्य॑ । वाह॑सा ॥१३८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजामृतस्य पिप्रतः प्र यद्भरन्त वह्नयः। विप्रा ऋतस्य वाहसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजाम् । ऋतस्य । पिप्रत: । प्र । यत् । भरन्त । वह्नय: ॥ विप्रा: । ऋतस्य । वाहसा ॥१३८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (यद्) जब (वह्नयः) राज्यकार्य को बहन करने वाले नेतागण विवाहित गृहस्थों के समान (ऋतस्य) सत्य व्यवहार का पालन करते हुए (प्रजाम्) प्रजा को (प्र भरन्त) अच्छी प्रकार भरण पोषण करते हैं तब (विप्राः) विद्वान् पुरुष (ऋतस्य) सत्य के (वाहसा) प्राप्त कराने वाले ज्ञान से युक्त होते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥

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