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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 138/ मन्त्र 3
कण्वाः॒ इन्द्रं॒ यदक्र॑त॒ स्तोमै॑र्य॒ज्ञस्य॒ साध॑नम्। जा॒मि ब्रु॑वत॒ आयु॑धम् ॥
स्वर सहित पद पाठकण्वा॑: । इन्द्र॑म् । यत् । अक्र॑त् । स्तोमै॑: । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् ॥ जा॒मि । ब्रु॒व॒ते॒ । आयु॑धम् ॥१३८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कण्वाः इन्द्रं यदक्रत स्तोमैर्यज्ञस्य साधनम्। जामि ब्रुवत आयुधम् ॥
स्वर रहित पद पाठकण्वा: । इन्द्रम् । यत् । अक्रत् । स्तोमै: । यज्ञस्य । साधनम् ॥ जामि । ब्रुवते । आयुधम् ॥१३८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
(कण्वाः) मेघावी, बुद्धिमान्, तेजस्वी पुरुष (यत्) जब (स्तोमैः) उत्तम ज्ञानयुक्त स्तुति-वचनों और पदाधिकारों से ही (यज्ञस्य) प्रजापालक, परस्पर सुसंगत राष्ट्र पालन के कार्य के (साधनम्) साधने वाले राजा को (अकृत) समर्थ कर देते हैं तब वे (आयुधम्) हथियार आदि को (जामि) अतिरिक्त, निष्प्रयोजन (ब्रुवते) कहा करते हैं।
सुव्यवस्थित राज्यशासन में चोर आदि का भय न होने से स्वयं जीवन सुरक्षित रहता है। फिर हथियार रखने की आवश्यकता नहीं है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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