Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 139

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 139/ मन्त्र 1
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त १३९

    आ नू॒नम॑श्विना यु॒वं व॒त्सस्य॑ गन्त॒मव॑से। प्रास्मै॑ यच्छतमवृ॒कं पृथु छ॒र्दिर्यु॑यु॒तं या अरा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नू॒नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वम् । व॒त्सस्य॑ । ग॒न्त॒म् । अव॑से । प्र । अस्मै॑ । य॒च्छ॒त॒म् । अ॒वृ॒कम् । पृ॒थु । छ॒र्दि: । यु॒यु॒तम् । या: । अरा॑तय: ॥१३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नूनमश्विना युवं वत्सस्य गन्तमवसे। प्रास्मै यच्छतमवृकं पृथु छर्दिर्युयुतं या अरातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नूनम् । अश्विना । युवम् । वत्सस्य । गन्तम् । अवसे । प्र । अस्मै । यच्छतम् । अवृकम् । पृथु । छर्दि: । युयुतम् । या: । अरातय: ॥१३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे (अश्विनी) अश्वियो ! माता पिताओ, एवं राज्य के संचालक दो मुख्य पुरुषो ! शरीर में प्राण और अपान के समान, विश्व में सूर्य और चन्द्र, या दिन रात के समान व्यापक शक्ति वाले पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों बच्चे को माता पिता के समान (वत्सस्य) स्तुतिशील, एवं राष्ट्र में बसने वाले प्रजाजन को पुत्र या प्रजा जानकर उसकी (अवसे) रक्षा करने के लिये (आगन्तम्) आओ और (अस्मै) उसको (अवृकं) चोर आदि दुष्ट पुरुष और भेड़िये आदि हिंसक जीवों से रहित (पृथु) विस्तृत, पालनकारी, (छर्दिः) शरण (यच्छतम्) प्रदान करो, और (याः अरातयः) जो शत्रु है उनको (युयुतम्) पृथक् करो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते। १, ४ बृहत्यौ, २, ३ गायत्र्यौ, शेषाः अनुष्टुभः। ५ ककुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top