अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 5
यद्वां॑ क॒क्षीवाँ॑ उ॒त यद्व्य॑श्व॒ ऋषि॒र्यद्वां॑ दी॒र्घत॑मा जु॒हाव॑। पृथी॒ यद्वां॑ वै॒न्यः साद॑नेष्वे॒वेदतो॑ अश्विना चेतयेथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒म् । क॒क्षीवा॑न् । उ॒त । यत् । वि॒ऽअ॑श्व: । ऋषि॑: । यत् । वा॒म् । दी॒र्घऽत॑मा:। जु॒हाव॑ ॥ पृथी॑ । यत् । वा॒म् । वै॒न्य: । सद॑नेषु । ए॒व । इत् । अत॑: । अ॒श्वि॒ना॒ । चे॒त॒ये॒था॒म् ॥१४०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वां कक्षीवाँ उत यद्व्यश्व ऋषिर्यद्वां दीर्घतमा जुहाव। पृथी यद्वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतो अश्विना चेतयेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वाम् । कक्षीवान् । उत । यत् । विऽअश्व: । ऋषि: । यत् । वाम् । दीर्घऽतमा:। जुहाव ॥ पृथी । यत् । वाम् । वैन्य: । सदनेषु । एव । इत् । अत: । अश्विना । चेतयेथाम् ॥१४०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 5
विषय - सत्यपालक दो अधिकारी।
भावार्थ -
हे (अश्विना) अश्विगण राष्ट्र में विशेष रूप से व्यापक अधिकार वाले जनो ! (वां) तुम दोनों को (कक्षीवान्) शासन शक्ति का स्वामी और (यत्) जो (व्यश्वः) विविध अश्वसेना का स्वामी (ऋषिः) तत्वज्ञानी और (दीर्घतमाः) खेद, शोक, प्रजापीड़ा को नाश करने वाला और (वैन्यः) विद्वानों का हितकारी स्वयं बुद्धिमान्, (पृथी) विस्तृत भूमि का रक्षक, ये पुरुष (यत् ३) जिस कारण से (वां३) तुम दोनों को (आजुहाव) बुलाते हैं स्मरण करते हैं, तुमको पदाधिकारी रूप से नियुक्त करते हैं (अतः) इसलिये (सादनेषु एव) सब गृहों में और पदाधिकारों में (चेतयेथाः) शरीर के समस्त अंगों में प्राण और उदान के समान विशेष चेतना प्रदान करो।
अध्यात्म में—देह में व्यापक ज्ञान और शासन वाला होने से आत्मा ही कक्षीवान् है। विविध कर्म फलों का भोक्ता होने से ‘व्यश्व’ है शोक मोह को नाश करने से ‘दीर्घतमा’ है, कान्तियुक्त तेजस्वी होने से ‘वेन्य’ और विस्तृत महती शक्ति वाला होने से ‘पृथी’ है। वह प्राण अपान दोनों को अपने वश करता है इसी से वे दोनों शरीर के सब अंगों को चेतना युक्त करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्विनौ देवते। शशकर्ण ऋषिः। अनुष्टुभः। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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