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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२८

    व्यन्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना। इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना ॥ इन्द्र॑: । अभि॑नत् । व॒लम् ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना ॥ इन्द्र: । अभिनत् । वलम् ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (इन्द्रः) तीव्र वायु (यत्) जब (बलम्) आकाश को घेरने वाले मेघ को (अभिनत्) छिन्न भिन्न करता है उस समय वह (रोचनम्) प्रकाशित (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष भाग को (सोमस्य मदे) सोम, सूर्य के बल से (वि अतिरत्) विस्तृत करता, बढ़ा देता है। उसी प्रकार (इन्द्रः) राजा (यद्) जब (वलम्) राष्ट्र को घेरने वाले शत्रु को (अभिनत्) तोड़ डालता है तब (सोमस्य) राष्ट्र के ऐश्वर्य के (मदे) बल से (रोचना अन्तरिक्षम्) रुचिकर, बीच में विद्यमान देश को भी (वि अतिरत्) विशेष रूप से विस्तृत कर देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गोसूक्त्यश्वसूक्तिना वृषी। १, २ गायत्र्यौ। ३, ४ त्रिष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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