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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४

    आ नो॑ याहि सु॒ताव॑तो॒ऽस्माकं॑ सुष्टु॒तीरुप॑। पिबा॒ सु शि॑प्रि॒न्रन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒: । या॒हि॒ । सु॒तऽव॑त: । अ॒स्माक॑म् । सु॒ऽस्तु॒ती: । उप॑ । पिब॑ । सु । शि॒प्रि॒न् । अन्ध॑स: ॥४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो याहि सुतावतोऽस्माकं सुष्टुतीरुप। पिबा सु शिप्रिन्रन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । न: । याहि । सुतऽवत: । अस्माकम् । सुऽस्तुती: । उप । पिब । सु । शिप्रिन् । अन्धस: ॥४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 4; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे इन्द्र ! परमेश्वर (सुतावतः) योग समाधि द्वारा अध्यात्मज्ञान का प्रसव करने वाले (नः) हमें तू (आयाहि) प्राप्त हो। (अस्माकम्) हमारी (सुस्तुतीः) उत्तम स्तुतियों को (उप) अति समीप होकर श्रवण कर, एवं स्वीकार कर। हे (सुशिप्रिन्) उत्तम ज्ञानवान् ! आप ही (अन्धसः) उस परम अमृत रस का (पिब) पान करें, हमें भी पान करावें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बिठि ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥

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