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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
स नः॒ पप्रिः॑ पारयाति स्व॒स्ति ना॒वा पु॑रुहू॒तः। इन्द्रो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । पप्रि॑: । पा॒र॒या॒ति॒: । स्व॒स्ति । ना॒वा । पु॒रु॒ऽहू॒त: ॥ इन्द्र॑: । विश्वा॑: । अति॑ । द्विष॑: ॥४६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः पप्रिः पारयाति स्वस्ति नावा पुरुहूतः। इन्द्रो विश्वा अति द्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । पप्रि: । पारयाति: । स्वस्ति । नावा । पुरुऽहूत: ॥ इन्द्र: । विश्वा: । अति । द्विष: ॥४६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
विषय - आत्मा और राजा।
भावार्थ -
(सः) वह (पप्रिः) समस्त मनोरथों को और समस्त जगत् को पूर्ण करने वाला एवं स्वयं पूर्ण, सर्वव्यापक परमेश्वर, (पुरुहूतः) प्रजाओं द्वारा याद किये जाने योग्य (नः) हमें (नावा) जैसे केवट नाव से नदी के पार कर देता है उसी प्रकार (स्वस्ति) सुखपूर्वक (विश्वा द्विषः) समस्त शत्रुओं से (अति पारयाति) पार करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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