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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 52

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५२

    स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑। क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओ॑क॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वर॑न्ति । त्वा॒ । सु॒ते । नर॑: । वसो॒ इति॑ । नि॒रे॒के । उ॒क्थिन॑: ॥ क॒दा । सु॒तम् । तृ॒षा॒ण: । ओक॑: । आ । ग॒म॒: । इन्द्र॑ । स्व॒ब्दीऽइ॑व । वंस॑ग: ॥५२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः। कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वंसगः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वरन्ति । त्वा । सुते । नर: । वसो इति । निरेके । उक्थिन: ॥ कदा । सुतम् । तृषाण: । ओक: । आ । गम: । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसग: ॥५२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 52; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (वसो) सर्वव्यापक ! सब संसार के बसाने वाले ! (एके उक्थिनः) कुछ एक ज्ञानवान् (नरः) पुरुष (सुते) उत्पन्न इस संसार के आधार पर इसके सर्ग स्थिति और प्रलय के निमित्त से ही (त्वा निः स्वरन्ति) तेरी उपासना स्तुति करते हैं। (तृषाणः) पिपासाकुल पुरुष जिस प्रकार जल के निमित्त (ओकः आगमः) जल के स्थान पर आ जाता है उसी प्रकार तू भी (वंसगः स्वब्दीइव) उत्तम जल देने वाले मेघ के समान तू भी (कदा) हमें (आगमः) प्राप्त होगा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेध्या तिथि ऋषिः। इन्दो देवता। बृहत्यः। तृचं सूक्तम्॥

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