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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
समीं॑ रे॒भासो॑ अस्वर॒न्निन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑। स्वर्पतिं॒ यदीं॑ वृ॒धे धृ॒तव्र॑तो॒ ह्योज॑सा॒ समू॒तिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ई॒म् । रे॒भास॑: । अ॒स्व॒र॒न् । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तवे॑ ॥ स्व॑:अपतिम् । यत् । ई॒म् । वृ॒धे । धृ॒तऽव्र॑त: । हि । ओज॑सा । सम् । ऊ॒तिऽभि॑: ॥५४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समीं रेभासो अस्वरन्निन्द्रं सोमस्य पीतये। स्वर्पतिं यदीं वृधे धृतव्रतो ह्योजसा समूतिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ईम् । रेभास: । अस्वरन् । इन्द्रम् । सोमस्य । पीतवे ॥ स्व:अपतिम् । यत् । ईम् । वृधे । धृतऽव्रत: । हि । ओजसा । सम् । ऊतिऽभि: ॥५४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 54; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर गुणगान।
भावार्थ -
(यद्) जबी भी (वृधे) वृद्धि के लिये (धृतव्रतः) समस्त व्रतों को धारण करने वाला (ओजसा) अपने पराक्रम से, (ऊतिभिः) अपने रक्षा साधनों से (सम्) संगत होता है तभी (रेभासः) स्तुतिकर्ता विद्वान् लोग (सोमस्य पातये) अमृत रस का पान करने के लिये (स्वः पतिम्) समस्त सुखों के स्वामी (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को (सम् अस्वरन्) एकत्र होकर स्तुतिगान करते हैं।
राष्ट्र पक्ष में—(यदीं) जब भी व्रत को धारण कर अपने पराक्रम और रक्षा साधनों से युक्त होकर (वृधे) अपने राष्ट्र वृद्धि के लिये राजा तैयार होता है तभी (रेभासः) विद्वान लोग (सोमस्य पीतये) राष्ट्र ऐश्वर्य को स्वीकार करने के लिये इससे एकत्र मिलकर प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - रेभ ऋषिः। इन्दो देवता। १ अति जगती, २, ३ उपरिष्टाद् बृहत्यौ। तृचं सूक्तम्॥
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