अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता। पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्यु॒म्नानि॑ । व॒निन॑: । इ॒न्द्र॑म् । स॒च॒न्ते॒ । अक्षि॑ता । पी॒त्वी॒ । सोम॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता। पीत्वी सोमस्य वावृधे ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । द्युम्नानि । वनिन: । इन्द्रम् । सचन्ते । अक्षिता । पीत्वी । सोमस्य । ववृधे ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
विषय - राजा और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
(वनिनः) ईश्वर के भजन करने वाले पुरुष के (अक्षिता द्युम्नानि) समस्त अक्षय धन, ऐश्वर्य और यश आदि (इन्द्रम् अभि सचन्ते) उस इन्द्र को ही प्राप्त होते हैं उसके ही भेंट जाते हैं। और वह (सोमस्य) इस सोम, समस्त संसार को (पीत्वी) पान करके (वावृधे) स्वयं बढ़ा हुआ है, स्वयं सबसे महान् होकर रहता है।
राजा के पक्ष में—(वनिनः) धनाढ्यों के समस्त ऐश्वर्य उस राजा को ही प्राप्त हैं, वह राष्ट्र रूप सोम को स्वयं स्वीकार करके सबसे बढ़ा चढ़ा है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। नवर्चं सूक्तम्। गायत्र्यः।
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