अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्। इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वा॒ऽवत॑: । न॒: । आ । ग॒हि॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् ॥ इ॒मा: । जु॒ष॒स्व॒ । न॒: । गिर॑: ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वावतो न आ गहि परावतश्च वृत्रहन्। इमा जुषस्व नो गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाऽवत: । न: । आ । गहि । पराऽवत: । च । वृत्रऽहन् ॥ इमा: । जुषस्व । न: । गिर: ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
विषय - राजा और परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ -
हे (वृत्रहन्) आवरणकारी अन्धकार और समस्त विघ्नों के नाशक प्रभो ! तू (नः) हमें (अर्वावतः) समीप के देश से और (परावतः च) दूर देश से भी (आगहि) प्राप्त हो। और (इमाः नः गिरः) हमारी इन वाणियों को (जुषस्व) स्वीकार कर।
राजा के पक्ष में—तू हम प्रजाजनों की प्रार्थनाओं को सुन। दूर और समीप जहां भी हो वहां से हमारी रक्षार्थ हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता। नवर्चं सूक्तम्। गायत्र्यः।
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