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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
उ॒तो नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॑ जु॒षेत॒ ह्यर्कस्य॑ बोधि ह॒विषो॒ हवी॑मभिः॒ स्व॑र्षाता॒ हवी॑मभिः। यदि॑न्द्र॒ हन्त॑वे॒ मृधो॒ वृषा॑ वज्रिं॒ चिके॑तसि। आ मे॑ अ॒स्य वे॒धसो॒ नवी॑यसो॒ मन्म॑ श्रुधि॒ नवी॑यसः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तो इति॑ । न॒: । अ॒स्या: । उ॒षस॑: । जु॒षेत॑ । हि । अ॒र्कस्य॑ । बो॒धि॒ । ह॒विष॑: । हवी॑मऽभि: । स्व॑:ऽसाता । हवी॑मऽभि: ॥ यत् । इ॒न्द्र॒ । हन्त॑वे । मृध॑: । वृषा॑ । व॒ज्रि॒न् । चिके॑तसि ॥ आ । मे॒ । अ॒स्य । वे॒धस॑: । नवी॑यस: । मन्म॑ । श्रु॒धि॒ । नवी॑यस: ॥७२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
उतो नो अस्या उषसो जुषेत ह्यर्कस्य बोधि हविषो हवीमभिः स्वर्षाता हवीमभिः। यदिन्द्र हन्तवे मृधो वृषा वज्रिं चिकेतसि। आ मे अस्य वेधसो नवीयसो मन्म श्रुधि नवीयसः ॥
स्वर रहित पद पाठउतो इति । न: । अस्या: । उषस: । जुषेत । हि । अर्कस्य । बोधि । हविष: । हवीमऽभि: । स्व:ऽसाता । हवीमऽभि: ॥ यत् । इन्द्र । हन्तवे । मृध: । वृषा । वज्रिन् । चिकेतसि ॥ आ । मे । अस्य । वेधस: । नवीयस: । मन्म । श्रुधि । नवीयस: ॥७२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
योगी पुरुष (अस्या उषसः) इस उषा का (जुषेत) सेवन करे अर्थात् योगसाधना से उत्पन्न ज्योतिष्मती प्रज्ञा का आनन्द लाभ करे। और (हविषः) स्वीकार करने और स्तुति करने योग्य (अर्कस्य) अर्चनीय परमेश्वर का (वीमभिः) स्तुतियों द्वारा (बोधि) ज्ञान करे। वह (हवीमभिः) स्तुतियों द्वारा ही (स्वः साता) परमसुख को प्राप्त होता है हे (वज्रिन्) ज्ञानवज्र को धारण करने हारे ! और हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् तू (यत्) जब (मृधः) शत्रु सेनाओं के समान मन को डुलाने वाली, व्युत्थान वासनाओं को (हन्तवे) नाश करने के लिये (चिकेतसि) ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब (अस्य मे) इस मुझ (नवयिसः) नये नये दीक्षा प्राप्त (वेधसः) मेधावी, ज्ञानवान् प्रबुद्ध पुरुष के (मन्म) मनन या विचारगम्य स्तुति को (आ श्रुधि) श्रवण कर।
परमेश्वर के पक्ष में—(उतो) और वह परमेश्वर (अस्या उषसः) इस प्रभातकाल में भी (अर्कस्य जुपेत) हमारी स्तुति को स्वीकार करे। हमारे (हवीमभि:) स्तुति सहित (हविपः) श्रद्धा भाव को (बोधि) जाने। वह (हवीमभिः) स्तुति द्वारा ही (स्वः साता) सुख प्रदान करने हारा हैं। हे परमेश्वर हमारे शत्रु काम क्रोधादि को विनाश करने के लिये तू. (चिकेतसि) हमें ज्ञान प्रदान कर।
(अस्य नवीयसः मन्म आश्रुधि) इन नवीन स्तुतिकर्ता की स्तुति को श्रवण कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परुच्छेप ऋषिः। अत्यष्टयः। तृचं सूक्तम्॥
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