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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-७३

    सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒ स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते। अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सो इति॑ । चि॒त् । नु । वृ॒ष्टि: । यू॒थ्या॑ । स्वा । सचा॑ । इन्द्र॑: । श्मश्रू॑णि: । हरि॑ता । अ॒भि । प्रु॑ष्णु॒ते॒ ॥ अव॑ । वे॒ति॒ । सु॒ऽक्षय॑म् । सु॒ते । मधु॑ । उत् । इत्‌ । धू॒नो॒ति॒ । वात॑: । यथा॑ । वन॑म् ॥७३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या स्वा सचाँ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते। अव वेति सुक्षयं सुते मधूदिद्धूनोति वातो यथा वनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सो इति । चित् । नु । वृष्टि: । यूथ्या । स्वा । सचा । इन्द्र: । श्मश्रूणि: । हरिता । अभि । प्रुष्णुते ॥ अव । वेति । सुऽक्षयम् । सुते । मधु । उत् । इत्‌ । धूनोति । वात: । यथा । वनम् ॥७३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    (चित् नु) जिस प्रकार (वृष्टिः) मेघ से आने वाली जल वृष्टि (हरिता) हरे वृक्षों को (अभि प्रुष्णुते) सींचती है इसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् ज्ञानी पुरुष (स्वा सचाम्) अपने में समवेत, अपने पर आश्रित (यूथ्या) समूहों में बसने वाले प्राणियों को (श्मश्रूणि) अपने शरीर में स्थित मोंछ के बालों के समान (अभि प्रुष्णुते) उनको साक्षात् नाना ऐश्वर्यों और स्नेहों से सेंचता है। वह ही (सुक्षयं अव वेति) उत्तम निवास या लोक को प्राप्त होता है। और (सुते) ज्ञान के उत्पन्न होजाने पर या उत्पन्न हुए इस संसार में (मधु वेति) मधुर फल भोग मधुर ब्रह्मानन्द का भोग करता है। अपने साथ लगे सांसारिक दुःख बृन्धनों को वह ऐसे (उद् धूनोति) झाड़ फेंकता है (यथा) जिस प्रकार (वातः वनम्) प्रबल वायु वन को कंपा डालता है और पतझड़ कर डालता है। राजा के पक्ष में—(चित् नु वृष्टिः हरिता) वृष्टि जिस प्रकार हरे वृक्षों को सींचती है उसी प्रकार वह इन्द्र राजा (स्वा यूथ्या) अपने यूथ के संघ के लोगों को भी (अभि प्रुष्णुते) ऐश्वर्य और स्नेह से बढ़ाता है। वह (सुक्षयं अव वेति) उत्तम गृह राजमहल में रहता है। (सुते) राज्याभिषेक होजाने पर वह (मधु) मधुर राष्ट्र का भोग करता है। (वातः यथा वनम्) वायु जिस प्रकार वन को वेग से तोड़ फोड़ डालता और कंपा डालता है उसी प्रकार वह भी प्रचण्ड होकर (वनम्) शत्रुओं के सेना समूह को (उद् धूनोति) कंपा डालता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१-३ वसिष्ठः, ४-६ वसुक्रः। देवता—इन्द्रः। छन्दः—१-३ विराडनुष्टुप्ः, ४-५ जगती, ६ अभिसारिणीत्रिष्टुप्॥

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