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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७३

    प्र वो॑ म॒हे म॑हि॒वृधे॑ भरध्वं॒ प्रचे॑तसे॒ प्र सु॑म॒तिं कृ॑णुध्वम्। विशः॑ पू॒र्वीः प्र च॑रा चर्षणि॒प्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । व॒: । म॒हे । म॒हि॒ऽवृधे॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । प्रऽचे॑तसे । प्र । सु॒म॒तिम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् ॥ विश॑: । पू॒र्वी: । प्र । च॒र॒ । च॒र्ष॒णि॒: । प्रा: ॥७३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो महे महिवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम्। विशः पूर्वीः प्र चरा चर्षणिप्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । व: । महे । महिऽवृधे । भरध्वम् । प्रऽचेतसे । प्र । सुमतिम् । कृणुध्वम् ॥ विश: । पूर्वी: । प्र । चर । चर्षणि: । प्रा: ॥७३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे विद्वान् पुरुषो ! (वः) तुम लोग (महे) उस महान् (महिवृधे) बड़े ऐश्वर्य को बढ़ाने वाले अथवा बड़े बड़े संकटों को काट डालने वाले (प्रचेतसे) उत्कृष्ट ज्ञानवान् परमेश्वर के लिये (प्र भरध्वम्) उत्तम विचारों का मनन करो। और (सुमतिं) शुभ बुद्धि या स्तुति (प्र कृणुध्वम्) करो। हे परमेश्वर तू (चर्षणिप्राः) मनुष्यों को समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण करने हारा होकर (विशः) मनुष्यों और प्रज़ाओं को (पूर्वीः) ज्ञान और बल में पूर्ण (प्र चर) कर। राजा के पक्ष में—हे मनुष्यो ! तुम (महि वृधे महे) बड़े बड़े शत्रुओं को गिराने वाले बड़े राजा के लिये (प्र भरध्वम्) भेटें लाओ। उसके प्रति (सुमतिं प्र कृणुध्वम्) उत्तम चित्त बनाये रखो। हे राजन् ! तू (चर्षणिप्राः) प्रजाओं की कामनाओं को पूर्ण करने वाला होकर (विशः) प्रजाओं को (पूर्वीः प्र चर) धन, बल आयुष्य में पूर्ण कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१-३ वसिष्ठः, ४-६ वसुक्रः। देवता—इन्द्रः। छन्दः—१-३ विराडनुष्टुप्ः, ४-५ जगती, ६ अभिसारिणीत्रिष्टुप्॥

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