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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
आदित्ते॑ अ॒स्य वी॒र्यस्य चर्किर॒न्मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखिय॒तो यदावि॑थ। च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्यः॒ पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे। ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं सनिष्णत॒ श्रव॒स्यन्तः॑ सनिष्णत ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्य॑स्य । च॒र्कि॒र॒न् । मदे॑षु । वृ॒ष॒न् । उ॒शिज॑: । यत् । आवि॑थ: । स॒खि॒ऽय॒त: । यत् । आवि॑थ ॥ च॒कर्थ॑ । का॒रम् । ए॒भ्य॒: । पृत॑नासु । प्रऽव॑न्तवे ॥ ते । अ॒न्याम्ऽअ॑न्याम् । न॒द्य॑म् । स॒नि॒ष्ण॒त॒ । अ॒व॒स्यन्त॑: । स॒नि॒ष्ण॒त॒ ॥७५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्मदेषु वृषन्नुशिजो यदाविथ सखियतो यदाविथ। चकर्थ कारमेभ्यः पृतनासु प्रवन्तवे। ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्तः सनिष्णत ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । इत् । ते । अस्य । वीर्यस्य । चर्किरन् । मदेषु । वृषन् । उशिज: । यत् । आविथ: । सखिऽयत: । यत् । आविथ ॥ चकर्थ । कारम् । एभ्य: । पृतनासु । प्रऽवन्तवे ॥ ते । अन्याम्ऽअन्याम् । नद्यम् । सनिष्णत । अवस्यन्त: । सनिष्णत ॥७५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
विषय - राजा और आत्मा का अभ्युदय।
भावार्थ -
आत्मा-पक्ष में—(आत् इत्) और इसके याद (ते) वे योगिजन (अस्य वीर्यस्य) तेरे इस सामर्थ्य को (चर्किरन्) चारों तरफ फैलाते या स्तुति करते हैं (यत्) जिससे हे (वृषन्) हृदयों में आनंदरस के वर्षक ! तू (मदेषु) आत्मा के आनन्द से तृप्त होजाने के अवसरों में उन (उशिजः) कामना युक्त, तुझे चाहने वाले अपने इच्छुकों को (आविथ) प्राप्त होता है और (यत्), जिससे तू (सखीयतः) तुझे अपने सखा बनाने के इच्छुक पुरुषों को (आविथ) प्राप्त होता है। तू तभी (एभ्यः) उन साधकों के लिये (पृतनासु) काम्य पदार्थों से पूर्ण लोकों में (प्रवन्तवे) उत्कुष्ट पद या ऐश्वर्य के भोग्य के लिये (कारम्) क्रिया सामर्थ्य को (चकर्थ) प्रदान करता है। और (ते) वे भी (अन्याम् अन्याम्) एक से एक अगली (नद्यं) नदी या समृद्ध आत्मदशा को (सनिष्णत) प्राप्त करते हैं और (श्रवस्यन्तः) आत्म ज्ञानोपदेश की कामना करते हुए ही वे एक से एक उन्नत (नदीं) जल पूर्ण नदी, ज्ञान समृद्ध गुरु रूप सरस्वती को (सनिष्णत) प्राप्त होते हैं और ज्ञान लाभ करते हैं।
तीर्थात् तीर्थान्तरं व्रजेत् गुरोर्गुर्वन्तरं व्रजेत्।
राजा के पक्ष में—(यत्) जिस बल से हे (इन्द्र) राजन् ! सेनापते ! (मदेषु) संग्राम के अवसरों में (उशिजः आविथ) अपने कामनावान् अभिलाषुक और (सखीयतः) मित्रता के इच्छुक पुरुषों का (आविथ) रक्षा करता है वे (ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्) तेरे इस वीर्य को सामर्थ्य को चारों ओर फैलाते हैं, विस्तृत करते हैं। तू (एभ्यः प्रवन्तवे) उन वीरों के भोग के लिये (पृतनासु) संग्रामों और सेनाओं में भी (कारं चकर्थ) यत्न करता है और (ते) वे वीरगण (अन्याम् अन्याम्) एक से एक आगे आती नदी को (सनिष्णतः) पार करते हुए जाते हैं। वे (श्रवस्यन्तः) यश के अभिलाषी (सनिष्णतः) आगे ही बढ़ते देशों को प्राप्त करते जाते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—परुच्छेपः। देवता—इन्द्रः। छन्दः—अत्यष्टिः॥
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