अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कं छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः। यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॑ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठवने॑ । वा॒ । य: । नि । अ॒धा॒यि॒ । चा॒कन् । शुचि॑: । वा॒म् । स्तोम॑: । भु॒र॒णौ॒ । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥ यस्य॑ । इत् । इन्द्र॑: । पु॒रु॒ऽदिने॑षु । होता॑ । नृ॒णाम् । नय॑: । नृऽत॑म: । क्ष॒पाऽवा॑न् ॥७६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वने न वा यो न्यधायि चाकं छुचिर्वां स्तोमो भुरणावजीगः। यस्येदिन्द्रः पुरुदिनेषु होता नृणां नर्यो नृतमः क्षपावान् ॥
स्वर रहित पद पाठवने । वा । य: । नि । अधायि । चाकन् । शुचि: । वाम् । स्तोम: । भुरणौ । अजीगरिति ॥ यस्य । इत् । इन्द्र: । पुरुऽदिनेषु । होता । नृणाम् । नय: । नृऽतम: । क्षपाऽवान् ॥७६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 1
विषय - आत्मा और राजा।
भावार्थ -
हे (भुरणौ) शरीर के पालन पोषण करने वाले माता पिता के समान प्राण और उदान दोनों ! (यः) जो (स्तोमः) स्तोम, वीर्य, सामर्थ्य, अथवा प्राणों का गण (वने) सबके भजन या सेवन करने योग्य या सबका भोग करने वाले आत्मा में (न्यधायि) निहित या स्थित है वह स्तोम, वीर्य या इन्द्रियगण (शुचिः) अत्यन्त विशुद्ध रूप से (चाकं न) मानो तुम्हारी कामना करता हुआ सा (वां अजीगः) तुम दोनों को ही प्राप्त होता है। (यस्य) जिस बल सामर्थ्य को (इन्द्रः) इन्द्र (पुरुदिनेषु) बहुत दिन तक (होता) स्वयं धारण करता हुआ (नृणां) मनुष्यों में (नर्यः) सब से श्रेष्ठ, सबका हितकारी (नृतमः) सबसे मुख्य नायक के समान समस्त प्राणगणों का नेता है और जो (क्षपावान्) समस्त रजों विकारों के नाश करने वाली चिति शक्ति का स्वामी एवं (क्षपावान्) रात्रि के स्वामी चन्द्र के समान घोर जड़ता रूप अन्धकार रात्रि में प्रकाशवान् है। अथवा रात में भी सोते समय पहरेदार के समान मुख्य प्राण के रूप में जागता और शरीर को चेतन बनाये रखता है।
राजा के पक्ष में—हे (भुरणौ) राष्ट्र के पालक राजा और सभापति दोनों ! (यः) जो (शुचिः) शुद्ध (स्तोमः) वीर्य या अधिकार (वने वा न्यधायि) सबसे अधिक चाहने योग्य मुख्य, राजापद या राष्ट्र में स्थित है (चाकं न) मानो तुम दोनों को चाहता सा हुआ वह (वां) तुम दोनों को (अजीगः) प्राप्त हो। जिस अधिकार को (इन्द्रः पुरुदिनेषु होता) राजा बहुत दिनों तक रखता है। वह राजा (नर्यः) सब मनुष्यों का हितकर और (नृणां नृतमः) मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ और (क्षपावान्) जो सूर्य या चन्द्र के समान रात्रि या रमणकारिणी राज्य शक्ति का स्वामी है, या जो क्षपा, अर्थात् शत्रु के नाशकारिणी सेना का स्वामी है।
अथवा (स्तोमः) स्तुति करने योग्य (शुचिः) शुद्धस्वरूप (वः) जो (वने) सेवन करने योग्य इस देह में (वने न शुचिः) वन में अग्नि के समान, या अन्तरिक्ष में सूर्य के समान (चाकं न) समस्त भोगों की कामना करता हुआ (नि अधायि) रक्खा गया है वह हे (भुरणौ) देह के पालन करने हारे प्राण और उदान (वां) तुम दोनों को भी (अजीगः) प्राप्त है। तुम दोनों में भी व्यापक है। (यस्य) जिसको (होता) स्वीकार करने वाला या आह्वान करने वाला स्वयं (इन्द्रः) यह आत्मा (पुरुदि नेषु) बहुतसे दिनों तक रहा। जो स्वयं (नृणां नृतमः नर्यः) शरीर के समस्त नेता प्राणों में सर्वश्रेष्ठ और (नर्यः) सबका हितकारी (क्षपावान) दोषों के नाशक चेतना शक्ति का स्वामी है।
इसी प्रकार (स्तोमः) स्तुति योग्य (शुचिः) निष्कपट शुद्ध व्यवहारवान् (चाकम्) प्रजाओं को चाहने वाला विद्वान् पुरुष (वने न) वन में अग्नि के समान (वने) भोग योग्य राष्ट्र में उज्ज्वल होकर हे (भुरणौ) राष्ट्र के पालकरूप सेनापति और सभापति गणो ! वह भी (वां अजीगः) तुम दोनों पर विद्यमान है (यस्य) जिसको (नर्यः) नरों का हितकारी (नृणां नृतमः) मनुष्यों में नरश्रेष्ठ (क्षपावान्) शत्रु क्षयकारी (इन्दः) राजा भी स्वयं (पुरुदिनेषु) बहुत दिनोंतक (होता) आदर से स्वीकार करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुक ऐन्द्रो ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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