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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७६

    प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षसः॒ प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम्। अनु॑ त्रि॒शोकः॑ श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ते॒ । अ॒स्या: । उ॒षस॑: । प्र । अप॑रस्या: । नृ॒तौ । स्या॒म॒ । नृऽत॑मस्य । नृ॒णाम् ॥ अनु॑ । त्रि॒ऽशोक॑: । श॒तम् । आ । अ॒व॒ह॒त् । नॄन् । कुत्से॑न: । रथ॑: । य: । अस॑त् । स॒स॒ऽवान् ॥७६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ते अस्या उषसः प्रापरस्या नृतौ स्याम नृतमस्य नृणाम्। अनु त्रिशोकः शतमावहन्नॄन्कुत्सेन रथो यो असत्ससवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ते । अस्या: । उषस: । प्र । अपरस्या: । नृतौ । स्याम । नृऽतमस्य । नृणाम् ॥ अनु । त्रिऽशोक: । शतम् । आ । अवहत् । नॄन् । कुत्सेन: । रथ: । य: । असत् । ससऽवान् ॥७६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे आत्मन् ! (नृणाम् नृतमस्य) शरीर के उठाने वाले नेता प्राणगण के बीच सर्वोत्कृष्ट प्राणरूप (ते) तेरी (अस्याः) इस (उषसः) पापदाहक ज्योतिष्मती प्रज्ञा के और (अपरस्याः) दूसरी ब्रह्म विषयक या अनन्तर भाविनी धर्ममेघ दशा के (नृतौ) प्राप्त हो जाने पर हम (प्र स्याम) उत्तम ज्ञानवान् हो जायं। यद जो तू (कुत्सेन) समस्त बन्धनों को काटने वाले ज्ञानबल के साथ मिलकर स्वयं (रथः) रमणीय देह स्वरूप होकर (ससवान्) कर्म फलों का भोक्ता (असत्) होजाता है वह तू ही अथवा (कुत्सेन) बन्धन काटने वाला ज्ञान के बल से स्वयं (रथः) रस स्वरूप आनन्दमय होकर (ससवान) उस आनन्द का भोक्ता (असत्) हो जाता है। (त्रिशोकः) वाणी, मन और प्राण इन त्रिविध तेजों से युक्त होकर (शतम्) सैंकड़ों (नॄन्) नेता प्राणगण को अथवा नर देहों को भी योग विभूति द्वारा (अनु आवहन) अपने में रख कर धारण करता है। राजा के पक्ष में—हे राजन् (ते नृणां नृतमस्य) समस्त मनुष्यों में श्रेष्ठ तुझ नरोत्तम के अधीन रहकर हम (अस्याः उषसः अपरस्याः नृतौ) इस प्रभात और अगली प्रभात वेला के आते आते अर्थात् बहुत शीघ्र, (प्र स्याम) उन्नत हों। तू (कुत्सेन) शत्रुओं को काट गिरा देने वाले वज्र के साथ (यः) जो स्वयं (रथः) महारथ होकर (ससवान् असत्) स्वयं राष्ट्र का भोक्ता हो जाता है वह तू (त्रिशोकः सन्) कोश, प्रज्ञा और उत्साह अथवा मन्त्रबल, सेनाबल और कोशबल इन तीनों प्रकार के तेजों से युक्त होकर (शतम्) सैंकड़ों नेता पुरुषों को (अनु) अपने अनुकूल (आवहन्) चलाने में समर्थ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुक ऐन्द्रो ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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